मत कर ! गर्व तूं इतना
संविधान भाव बनाया मैंने
स्नेह से इसे सजाया मैंने
संवेदनायें पल-पल पल्लवित होंगी
स्वप्न तुझे दिखलाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
उड़ा विद्वेष था आसमान में
प्रेम धरा पर लाया मैंने
स्वर्ण अक्षरों में अंकित होता
मानव धर्म सिखाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
लोहा लिया था मैंने जग से
जग का कोप उठाया मैंने
वे करते थे निंदा मेरी
स्नेह से गले लगाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
देश अलग-थलग सा लगता
इसको एक बनाया मैंने
करते कुछ थे जाति की बातें
जाति,जाती सिखलाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
स्नेह धर्म का बीज था बोया
'संविधान' वट लगाया मैंने
पुष्पित थीं शाखायें जिनकी
नया भविष्य जो लाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
प्यार नहीं था वर्ण-विशेष से
दुःख बटवारे का पाया मैंने
पूजते हैं ईश्वर मानकर
कदापि नहीं बतलाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
शेष है मेरी अंतिम इच्छा
करो ! ग्रहण संविधान की शिक्षा
मत पूजो ! भगवान मानकर
कभी नहीं था चाहा मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
विराम लगाओ ! धर्म-जाति पे
भेद-भाव और वर्ण,ख्याति पे
वरन करो !इंसान धर्म के
अंतिम शब्द बतलाया मैंने।
भीम हूँ,मैं
तेरे माटी का
नहीं चाहता,ख्याति स्वाद !
शेष यही है,इच्छा मेरी
पुनर्जन्म,
जीवन सनात !
( "युग पुरुष" बोधिसत्व,भारतरत्न विभूषित बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।)
"एकलव्य"
छाया चित्र स्रोत: http://www.culturalindia.net
संविधान भाव बनाया मैंने
स्नेह से इसे सजाया मैंने
संवेदनायें पल-पल पल्लवित होंगी
स्वप्न तुझे दिखलाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
उड़ा विद्वेष था आसमान में
प्रेम धरा पर लाया मैंने
स्वर्ण अक्षरों में अंकित होता
मानव धर्म सिखाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
लोहा लिया था मैंने जग से
जग का कोप उठाया मैंने
वे करते थे निंदा मेरी
स्नेह से गले लगाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
देश अलग-थलग सा लगता
इसको एक बनाया मैंने
करते कुछ थे जाति की बातें
जाति,जाती सिखलाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
स्नेह धर्म का बीज था बोया
'संविधान' वट लगाया मैंने
पुष्पित थीं शाखायें जिनकी
नया भविष्य जो लाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
प्यार नहीं था वर्ण-विशेष से
दुःख बटवारे का पाया मैंने
पूजते हैं ईश्वर मानकर
कदापि नहीं बतलाया मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
शेष है मेरी अंतिम इच्छा
करो ! ग्रहण संविधान की शिक्षा
मत पूजो ! भगवान मानकर
कभी नहीं था चाहा मैंने।
मत कर ! गर्व तूं इतना
विराम लगाओ ! धर्म-जाति पे
भेद-भाव और वर्ण,ख्याति पे
वरन करो !इंसान धर्म के
अंतिम शब्द बतलाया मैंने।
भीम हूँ,मैं
तेरे माटी का
नहीं चाहता,ख्याति स्वाद !
शेष यही है,इच्छा मेरी
पुनर्जन्म,
जीवन सनात !
( "युग पुरुष" बोधिसत्व,भारतरत्न विभूषित बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।)
"एकलव्य"
छाया चित्र स्रोत: http://www.culturalindia.net
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