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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

"मत कर ! गर्व तूं इतना"

मत कर ! गर्व तूं इतना
संविधान भाव बनाया मैंने 
स्नेह से इसे सजाया मैंने 
संवेदनायें पल-पल पल्लवित होंगी 
स्वप्न तुझे दिखलाया मैंने। 

मत कर ! गर्व तूं इतना 

उड़ा विद्वेष था आसमान में 
प्रेम धरा पर लाया मैंने
स्वर्ण अक्षरों में अंकित होता 
मानव धर्म सिखाया मैंने। 

मत कर ! गर्व तूं इतना 

लोहा लिया था मैंने जग से 
जग का कोप उठाया मैंने 
वे करते थे निंदा मेरी 
स्नेह से गले लगाया मैंने। 

मत कर ! गर्व तूं इतना 

देश अलग-थलग सा लगता 
इसको एक बनाया मैंने 
करते कुछ थे जाति की बातें 
जाति,जाती सिखलाया मैंने। 

मत कर ! गर्व तूं इतना 

स्नेह धर्म का बीज था बोया 
'संविधान' वट लगाया मैंने 
पुष्पित थीं शाखायें जिनकी 
नया भविष्य जो लाया मैंने।

 मत कर ! गर्व तूं इतना 

प्यार नहीं था वर्ण-विशेष से 
दुःख बटवारे का पाया मैंने 
पूजते हैं ईश्वर मानकर 
कदापि नहीं बतलाया मैंने।

मत कर ! गर्व तूं इतना 

शेष है मेरी अंतिम इच्छा 
करो ! ग्रहण संविधान की शिक्षा 
मत पूजो ! भगवान मानकर 
कभी नहीं  था चाहा मैंने। 

मत कर ! गर्व तूं इतना 

विराम लगाओ ! धर्म-जाति पे 
भेद-भाव और वर्ण,ख्याति पे 
वरन करो !इंसान धर्म के 
अंतिम शब्द बतलाया मैंने। 



भीम हूँ,मैं 
तेरे माटी का
नहीं चाहता,ख्याति स्वाद !

शेष यही है,इच्छा मेरी
पुनर्जन्म,
जीवन सनात ! 

( "युग पुरुष" बोधिसत्व,भारतरत्न विभूषित  बाबा साहेब  डॉ. भीमराव अम्बेडकर को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।)    



            "एकलव्य"  

छाया चित्र स्रोत: http://www.culturalindia.net
    

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