''वही पेड़ बिना पत्तों के''
वही पेड़
बिना पत्तों के
झुरमुट से
झाँकता
मन को मेरे
भाँपता
कल नहीं सोया था
एक निद्रा
शीतल भरी
उनके स्मरणों को
संजोता हुआ
शुष्क हो चलें हैं
जीवन के विचार
पत्ते तो लगे हैं
सूखी डालियों पे
झड़ रहें हैं
रह-रह कर
अश्रु सा !
धरा की कोंख में
वर्षा तो आयेगी
कर प्रतीक्षित बैठा है
स्वयं को छुपाए
वो सोचता है
कुछ अपूर्ण विचार
टटोलता हूँ
कुछ स्मृतियाँ
तोलता हूँ
बरबस ही
क्षणिक इच्छाओं के
पतवार खेता हूँ
हृदयपटल पे जमी काई
हरी हो जाती है
प्रेम की
कुछ बूंदें
छलक जातीं हैं
एक आस बनकर
करतीं हैं
पुनर्जीवित ! मुझको
बुनने की प्रेरणा देती हुई
जीवन के कई
मकड़जाल पुनः
संदेह तो होता है
प्रकृति की
सहानुभूति पर
एक बूँद का प्यासा
मरुस्थल में भी
मृगमरीचिका को
जलाशय कहता है
सदियों बीत गए
स्मरण नहीं
कब आईं थीं ?
ख़ुशियाँ !
मेरी चौखट पे
खटखटाने हृदयपट को
वर्तमान झाँक रहा है
मेरे अंतर्मन में
कुछ आशाओं की
पोटली बाँधे
बुलाता है मुझे
कहता है मेरे
जंग लगे
श्रवण में
कुछ खुसफुसाहट भरे
स्वर में
मैं आया हूँ
ओ ! मतवाले
जाग जा !
स्वप्न की दुनिया से
वास्तविक हूँ मैं
दिवास्वप्न नहीं
ले जाऊँगा ! तुझे
दुनिया के उस पार
जहाँ न कोई
दुःख होगा
न ही सुख की
मिथ्या स्मृतियाँ !
होंगी तो केवल
तेरा वही अस्तित्व
प्रकृति में समाता हुआ
जीवन का रास्ता
तुझे दिखाता हुआ
झूठी हँसी न होगी
मुखमंडल पे तेरे
अवसाद न होंगे
हताशाओं के
हृदयपटल पे !
जीवन का यही
सारभौमिक सत्य
तुझे दिखाऊँगा !
अपना तो नहीं
पराया भी नहीं
तुझे बनाऊँगा !
"एकलव्य"
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