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बुधवार, 1 मार्च 2017

"लगा के पंख सपनों के"


                                         "लगा के पंख सपनों के"           
               
लगा के पंख सपनों के 
सोचता हूँ ,मैं उड़ जाऊँ 
जला के झूठी दुनियां को 
चाहता हूँ ख़ुद जल जाऊँ ,

जल गई ये दुनियां 
धुँए उठेंगे ज़रुर 
धुंध भरे आशियानों में 
ओस की बूंदे बन जाऊँ ,

भारी हुआ, तो गिर जाऊँगा 
जमीं पर अपने आप 
चाहता हूँ सींच दूँ,ये धरती प्यारी 
एक नई फ़सल बन जाऊँ ,

क़ोहराम मचा है,धरती पर 
दो जून की रोटी को 
ख़ुद कट जाऊँ 
दूसरों के मुँह का निवाला बन जाऊँ,

अंधकार भरी धरती 
प्रकाश को तरसती है 
अधबुझा,जलता ही सही
दूसरों के रास्ते का,उजाला बन जाऊँ,

ज्ञात है मुझे,कुछ देर ही जलूँगा 
कुछ पल ही सही 
मंज़िल पाने का,इशारा बन जाऊँ ,

हर व्यक्ति,जो मज़बूर है 
 रोने को ज़िंदगी भर
क्षण भर हँसने के लिए,
ख़ूबसूरत नज़ारा बन जाऊँ
लगा के पंख सपनों के,सोचता हूँ ,मैं उड़ जाऊँ ........  



    "एकलव्य"  
 

   

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