( वर्तमान समय में पति-पत्नी के रिश्तों में शून्य होता प्रेम ! )
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
स्नेह नया,वह साँझ नई
उर आह्लादित उम्मीदों को
कर बाँधा था उसके कर से
मन विलग रहा, पर-सा मन को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
तैरा करते थे स्वप्न बहुत
कुछ मेरे लिए ,थोड़ा उनको
जीवन चलता,चरखा-चरखा
डोरी कच्ची है कातने को
मैं मानता ! गलती मेरी थी
स्नेह अधिक था पाने को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
था क्षितिज, जो नभ में दौड़ रहा
हम दौड़ रहे अपनाने को
सौगंध थी जीने-मरने की
जीवित हैं केवल जीने को
मरने तो लगे दोनों प्रतिक्षण
मैं 'मैं' हूँ, केवल मैं ही रहूँ
'पर' से जग में दिखलाने को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
स्मरण बहुत ही आते हैं !
जब हम थे,'मैं' का गमन रहा
ज्वर में मैं दर्द से ग्रसित रहा
बन ताप-सा तुझको आता था
गीली पट्टी और लेप लिए
माथा तेरा सहलाता था
घर के कोने अब लस्त पड़ा !
अश्रु कहते हैं आने को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
क्यूँ थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...?
वो पल थे, जब तुम होती थी
बनकर जीवन की आशा-सी
रंगों को भरती सपनों में
नभ 'इंद्रधनुषी' काया-सी
ये पल है, जब तुम 'काज' बनी
मेरी बदरंगी दुनिया की !
दुनियावाले बस कहते हैं
रिश्तों का नाम, निभाने को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
दर्शकदीर्घा ने खींच दिया
ड्योढ़ी हुई सीमा अपनी
रिश्ते हैं, काँच-से टूट गए
कुछ शेष नहीं बतलाने को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
कहते-कहते,अब 'मैं' ही हूँ
जीवन रस्ते ,विपरीत बनें
अब चलने को एकांत हमें
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
स्नेह नया,वह साँझ नई
उर आह्लादित उम्मीदों को
कर बाँधा था उसके कर से
मन विलग रहा, पर-सा मन को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
तैरा करते थे स्वप्न बहुत
कुछ मेरे लिए ,थोड़ा उनको
जीवन चलता,चरखा-चरखा
डोरी कच्ची है कातने को
मैं मानता ! गलती मेरी थी
स्नेह अधिक था पाने को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
था क्षितिज, जो नभ में दौड़ रहा
हम दौड़ रहे अपनाने को
सौगंध थी जीने-मरने की
जीवित हैं केवल जीने को
मरने तो लगे दोनों प्रतिक्षण
मैं 'मैं' हूँ, केवल मैं ही रहूँ
'पर' से जग में दिखलाने को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
स्मरण बहुत ही आते हैं !
जब हम थे,'मैं' का गमन रहा
ज्वर में मैं दर्द से ग्रसित रहा
बन ताप-सा तुझको आता था
गीली पट्टी और लेप लिए
माथा तेरा सहलाता था
घर के कोने अब लस्त पड़ा !
अश्रु कहते हैं आने को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
चिट्ठी-पाती से भिजवाया
तूने कहकर ,तू अलग रहे
तब जोड़े थे उस अग्नि से
यह रिश्ता अपना अलख रहे
क्या भूल थी यह हम दोनों की !
कुछ मीठे सपने पाने को
वो पल थे, जब तुम होती थी
बनकर जीवन की आशा-सी
रंगों को भरती सपनों में
नभ 'इंद्रधनुषी' काया-सी
ये पल है, जब तुम 'काज' बनी
मेरी बदरंगी दुनिया की !
दुनियावाले बस कहते हैं
रिश्तों का नाम, निभाने को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
दर्शकदीर्घा ने खींच दिया
ड्योढ़ी हुई सीमा अपनी
रिश्ते हैं, काँच-से टूट गए
कुछ शेष नहीं बतलाने को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
जीवन रस्ते ,विपरीत बनें
अब चलने को एकांत हमें
भस्म हुए रिश्ते सारे
बैठा 'मरघट' पछताने को
हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...
'एकलव्य'
3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर एकलव्य जी !
ज़िंदगी में खों दिया जो,
मत करो उसका हिसाब,
बाज़ुओं के दम पे ख़ुद,
तुम ला सकोगे इंक़लाब !
वाह
बेहतरीन सृजन आदरणीय
सादर
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