सोमवार, 27 मार्च 2017

"भावनायें बनकर"


                                                                "भावनायें बनकर" 


गिर गईं भावनायें बनकर 
जो टिकीं, पलकों तले 
बहुत रोका हथेलियों से दबाकर 
स्याह बन गईं हाथों में आकर 

बड़े-बड़े ख़्वाब देखा करता 
आसमां की ओर निहारकर 
हों गईं ओझल यूँ 
सपनों सी नींदों से  जागकर 

आँखें आज भी धोता हूँ 
अश्क छुपाने के लिये 
दुनियां वाले जान लेते हैं इन्हें 
मायूस चेहरे के धोखे में आकर 

लिख तो रहा हूँ आज भी मैं 
दिनों-रात एक ही ख़्याल 
बदल जाते हैं शब्दों के फेर से 
लेखनी के मुहाने पे आकर 

प्रश्न तो ये है 
लिख पाऊँगा अपने विचार कभी 
या स्याही ही उछालता रहूँगा
पन्नों पे केवल लीपापोती में 

फिर भी कोशिश तो सदैव बनी रहेगी 
प्लवन करती इच्छाओं को उतारने की 
कोरे कागज़ की जमीं पर 
झूठी सी इस दुनियां में 
थोड़ी देर आकर 


"एकलव्य"  



गुरुवार, 23 मार्च 2017

एक सलाम 'अमर शहीदों' के नाम


                                                      एक सलाम 'अमर शहीदों' के नाम 


उगते सूर्य की किरणों जैसा 
दृढ़ निश्चय सा था वो 
आसमान में उड़ता खग था 
पृथ्वी पर जन्मा था जो 

स्वर में भरा आज़ादी का जज़्बा 
निष्कलंक सा था वो 
नंगी पीठ प्रतीक्षा करतीं 
भयविहीन सा था जो 

लहु में बहतें स्वतंत्रता के कण 
स्वतंत्रता का प्रहरी था वो 
हृदय में बसता एक स्वप्न  
देशस्वप्न सा था जो  

विस्मृत करता देश आज है 
अविस्मरणीय व्यक्तित्व सा था वो 
नाम था जिसका 'भगत सिंह'
सिंह सदृश्य सा था वो 
सपूत देश का था जो ......... 

एक सलाम 'अमर शहीदों' के नाम 

"एकलव्य"   

मंगलवार, 21 मार्च 2017

"आओ प्यारे"

                                       

                                                     "आओ प्यारे" 
प्यारी कविता 'देश' के नाम 


रहने दो!
मंदिर,मस्ज़िद ,गुरुद्वारे 
बात करो,इंसान की प्यारे 
मत बाँटो,हमें पृथक धर्म में 
नष्ट करो! बस द्वेष हमारे 

अच्छे लगतें, घण्टें मंदिर के 
अज़ान, कर्णप्रिय लगता है 
क्या होली,क्या ईद देश में 
प्रेम  प्रबल जल बहता है

भाँति-भाँति के फूल खिलें हैं 
उत्तर से दक्षिण में सारे 
ना रोको तुम,धार प्रेम की
बननें दो! यूँ हृदय हमारे

प्रथम नागरिक,भारत का मैं 
जाति-धर्म सब पीछे हैं 
देश महान,बस बने हमारा 
रहने दो !सौहार्द हमारे

दूर करो ! समीकरण धर्म का 
इंसान का पाठ पढ़ाओ प्यारे
गणित का खेल,बड़ा पेचीदा 
मानव कला, सिखाओ प्यारे

देश जो लगता अलग-थलग सा 
मिलकर एक बनाओ प्यारे 
बची रहे,अस्मिता देश की 
प्रहरी बन,जान लड़ाओ प्यारे  
   
सूरज प्रगति का लाओ प्यारे 
एक बनें हम,आओ प्यारे 
स्वर्णकाल तुम, लाओ प्यारे 
प्रेम गीत सब, गाओ प्यारे। ....


'जय भारत' 


                                 "एकलव्य"
 प्यारी कविता 'देश' के नाम

छाया चित्र स्रोत: https://pixabay.com
           

सोमवार, 20 मार्च 2017

"गिर जायेंगे,ये ढेर बन"


                                                   "गिर जायेंगे,ये ढेर बन"
 "गिर जायेंगे,ये ढेर बन"



इन आँसुओं से सींच दूँ मैं 
हो कोई सपना अगर 
थाम लूँ,मैं बाजुओं में 
हो कोई अपना मग़र, 

आशायें धूमिल हों चुकीं जो 
आँखों में थीं,तैरतीं 
गिर जायें बनके,गम की बूंदे 
सजल चक्षु,हो मगर

चाहता हूँ,मैं भी उड़ना 
पंखों के,दम पे मगर 
दिख जाये कोई रास्ता 
गंतव्य सत्य का, हो अगर

रोना नहीं मैं चाहता 
भावनाओं के,वशीभूत बन 
माया में लिपटी ज़िंदगी 
ढूंढे खुशी क्यों !हर नगर,

सपनें खड़ें हैं,रेत पर 
ना जानें,क्या ये सोचकर
ज्ञाता नहीं,मैं सत्य का 
गिर जायेंगे,ये ढेर बन।.....गिर जायेंगे,ये ढेर बन।.....


                      "एकलव्य"
 "मेरी रचनायें मेरे अंदर मचे अंतर्द्वंद का परिणाम हैं"  
छाया चित्र स्रोत :https://pixabay.com/

शुक्रवार, 17 मार्च 2017

"जाति-धर्म का ध्वज" 'लेख'


                                             "जाति-धर्म का ध्वज" 'लेख'   


सर्वप्रथम मैं कहना चाहूँगा,हम मात्र इंसान हैं,न कि किसी विशेष धर्म-जाति के परिचायक।
धर्म-जाति का ध्वज वही व्यक्ति ऊँचा करता है जिसका कुछ स्वयं का स्वार्थ अन्तर्निहित हो,यदि आप विज्ञान और प्रौद्योगिकी की बात करतें हैं,तो ये उन स्वार्थपरक जन के लिए एक टेढ़ी खीर हो जाती है क्योंकि विज्ञान तर्क एवं स्पष्ठ प्रमाणों का द्योत्तक है,जो धर्म-जाति के आधार पर उत्पन्न तर्कों को निराधार सिद्ध करता है। 

मानव का एक सारभौमिक स्वभाव है, "सरलता की ओर अग्रसर होना बिना किसी कठनाई के" तो क्यों जटिलता से परिपूर्ण बातें करे ? 
"धर्म एक सीधा व सरल मार्ग है और सरलता का मार्ग प्रारम्भ में उचित प्रतीत होतें हैं किन्तु इसके दूरगामी विध्वंसक परिणाम तय हैं।" लोगों के ह्रदय में व्याप्त जाति-धर्म के नाम पर विद्वेष ,परिणामस्वरुप विनाश एवं गहरे शोक का प्रारम्भ !
संभव है विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के दौर में हम कितनी भी सफलतायें अर्जित कर लें किन्तु विचारों से आज भी हम धर्म एवं जाति की दासता से मुक्त नहीं हो पायें हैं। 
"अतः हमें तर्क आधारित तथ्यों पर अमल करने की आवश्यकता है।" 


                                "एकलव्य"
 "मेरी रचनायें मेरे अंदर मचे अंतर्द्वंद का परिणाम



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गुरुवार, 16 मार्च 2017

"हाँ,मैं मन हूँ"


                                                 "हाँ,मैं मन हूँ"
 "हाँ,मैं मन हूँ" 


हाँ मैं मन हूँ 
मानव का करतल हूँ 
आत्मा से द्वेष रखता  
चिरस्थाई महल हूँ 
हाँ,मैं मन हूँ....... 

प्राणी को उद्वेलित करता  
बनके सवेंदनायें,प्रबल हूँ 
बन अशक्त जो बैठा प्राणी 
प्रस्फुटित करता तरंग हूँ
हाँ,मैं मन हूँ....... 

मृत हुई जो तेरी इच्छा 
प्राण फूँकता,नवल हूँ 
भरता हूँ,चेतना की लहरें 
प्रेरणा एक,सबल हूँ
हाँ,मैं मन हूँ....... 

कोई कहे मैं,विचलित होता  
माया रूपी,छल हूँ  
कहते कुछ,पाखंडी मुझको 
दिवास्वप्न में,खल हूँ 
हाँ,मैं मन हूँ.......

विचलित सारथी,तूँ रथ का 
केवल मैं तो,चल हूँ 
मैं कहता,श्रीमान आपसे 
मानव का संबल हूँ 
हाँ,मैं मन हूँ.......हाँ,मैं मन हूँ.......



                      "एकलव्य"
"मेरी रचनायें मेरे अंदर मचे अंतर्द्वंद का परिणाम हैं"  
 
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बुधवार, 15 मार्च 2017

"तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'पाँच'


                                                   "तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'पाँच' 
 "तैरतीं ख़्वाहिशें"



आज़ मैं फिर सपनें देखता हूँ 
आज़ फिर,दिल को सेंकता हूँ 
आज़ फिर वही,मेरी महफ़िल सुनसान 
आज़ फिर वही ,मेरी दुनियां वीरान,

आज़ फिर जहन में वो ख़्वाहिश 
आज़ फिर मेरे सूने आँगन में ,एक नई फ़रमाईश 
आज़ फिर वही होंठों पर आते-आते,लफ्ज़ों का रुकना 
आज़ फिर वही,रुके हुए अल्फाज़ों का होंठों से फिसलना,

आज़ फिर वही,दिल की अधूरी चाहत 
आज़ फिर वही,दिल को थोड़ी सी राहत 
आज़ फिर दिल का फिसलना,एक अज़नबी से रुबरु होकर 
आज़ फिर गिरते-गिरते संभलना,अंजानी राहों से होकर,

आज़ फिर वही,ज़ालिम ज़मानें का फ़ब्तियाँ कसना 
आज़ फिर वही न चाहते हुए भी,लोगों को अनसुनी करना,

आज़ फिर वही,अनजानी महफ़िल में शामिल होना 
आज़ फिर वही,अकेली रातों में कुछ गुनगुनाना,

आज़ फिर वही,अपने चौबारों से लोगों को देखना 
आज़ फिर वही,अनजाने अपने को देखकर दिल का धड़कना,

आज़ फिर वही,इस पागल दिल को समझाना 
आज़ फिर वही,अपने ख़्वाहिशों को फुसलाना,

आज़ फिर वही,गहरे ख़्यालों में डूबना 
आज़ फिर वही,सतह पर उतराना,

आज़ फिर वही,अंधेरे बंद कमरों में चीखना 
आज़ फिर वही,अकेले में यूँ ही बड़बड़ाना 
आज़ फिर वही,जी भर रो लेना 
आज़ फिर वही,निकलते आँसूओं को अपने गर्म हथेली से पोंछना 
और हँसने का झूठा नाटक करना
आज़ फिर वही दूर तक,अकेले ही निकल जाना,

आज़ फिर वही,मैख़ानों में ज़िंदादिली का एहसास 
आज़ फिर वही,लफ्ज़ों पर अधूरी सी प्यास,

आज़ फिर वही,पीकर दुनियां को भुलाना 
आज़ फिर वही,पीने के बाद उनकी याद आना 
आज़ फिर वही,मैख़ानों में अज़नबियों से बातें 
आज़ फिर वही,याद आईं उनके पहलूँ में बीतीं रातें,

आज़ फिर वही,बोतल पे सिर रखकर रोना 
आज़ फिर वही,अपने होशों-हवाश खोना,

आज़ फिर कहीं,गलियों के नालों पर बेसुध पड़ा होना 
आज़ फिर वही,किसी अज़नबी का सहारा लेना,

आज़ फिर वही,अंधेरे कमरे में पड़े-पड़े उनकी याद में रोना 
आज़ फिर वही,अकेले रोते-रोते सोना 
ज़ारी है,आज़ भी 
कल भी
ज़ारी रहेगा अंतिम साँसों तक। बस तेरी याद में......



                   "एकलव्य"
"एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी हिंदी कविताओं एवं विचारों का संग्रह 
   


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मंगलवार, 14 मार्च 2017

"तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'चार'


                                              "तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'चार' 
"तैरतीं ख़्वाहिशें"



कई रातें काटीं हैं,मैखानों में पीते-पीते 
मुक़्क़म्मल ज़िंदगी काट ली,ज़िंदगी जीते-जीते,

आधा सा भरा वो ग्लास,पूरा लगता था 
अज़नबी सा कोई तरन्नुम,अपना सा लगता था,

रात की वो काली स्याही,लगती थी डरावनी उनके बिना 
हवाओं के झोंकों से,दरवाज़े का खुलना-बंद होना 
दिल में ख़लबली सी मचाती थी,उनके बिना,

लाख कोशिशें  करता था,गीली माचिस से चिराग़े रौशन करना 
टकरा कर टूट जाया करतीं थीं तीलियाँ,दीवारों पे घिसते-घिसते,

दिल तो धड़कता है रोज़,अपनी मर्ज़ी से 
ज़िस्म का क्या करूँ,साथ नहीं देता इनका,अपनी ख़ुदग़र्जी से,

हर शाम ज़िंदगी मेरी,मौत को आवाज़ लगाती है बड़ी ही सादग़ी से 
मैं तो दूसरों के जलसे में शामिल हूँ,यह कहकर 
मौत भी मुँह मोड़ लेती है,बड़े अदायगी से,

और कहती है 
फ़िक्र न कर आऊँगी मैं ज़रूर,उस ज़िंदगी से मिलने 
जो तेरी होकर भी,तेरी न बन सकी,

हूँ तो मौत ही सही,रह जाऊँगी तेरे पास 
तेरी ज़िंदगी बनके,

साथ दूँगी तेरा क़यामत तक,जब तक दुनियां बाक़ी है
दूँगी हाथ तब तक तुझे,तेरी परछाईयाँ बाक़ी हैं .........  


                      "एकलव्य"
 "एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी हिंदी कविताओं एवं विचारों का संग्रह

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शनिवार, 11 मार्च 2017

"डर लगता है आज भी"

                                                     "डर लगता है आज भी" 
 "डर लगता है आज भी" 



डर लगता है फिर वही,आँखें मूंदने से 
                                  सपनें देखने से  
                                  उनके टूटने से 
                                  अश्क गिरने से
                                 अरमान बहने से
                                  दरिया बनने से

             दूर कहीं एक पंक्षी का घोंसला    
                              टूटकर बिखरने से
                              सपने चूर-चूर होने से   
                              मन के अधीर होने से 
                              मौसम ग़मगीन होने से 
                              बादलों के गरजने से 
                              बिजलियों के चमकने से
                              रास्तों के उजड़ने से 
                              पैरों के थकने से  
                              थक कर रुकने से
                              रुक कर सोचने से 
                              सोचकर रोने से 
                              रोकर खोने से 
                              खोकर पाने से
                              पाकर सोने से
                              सपनें संजोने से   
                              फिर से बेफ़िक्र होने से
                              मंज़िल ओझल होने से 

                      फिर मन के बेचैन होने से 
                             होकर रास्ते ढूंढने से 
                             मिलकर साथ चलने से
                             साथ छूटने से,
                             डर लगता है आज भी।........डर लगता है आज भी।........  


                       "एकलव्य"
 "एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी हिंदी कविताओं एवं विचारों का संग्रह


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"स्वतंत्रता के सही मायनें" 'लेख'

 "स्वतंत्रता के सही मायनें"

                                     

                              "स्वतंत्रता के सही मायनें"  'लेख' 

तर्क!क्या हम स्वतंत्र हैं ?हमने स्वतंत्रता के सही परिदृश्य को समझा अथवा प्रसार किया या हम मिथ्या ही अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर रहें हैं ?
क्या स्वयं की स्वतंत्रता ही राष्ट्र की स्वतंत्रता है, या हम प्रसन्न हैं अपनी स्वयं की ख़ुशहाली पर !
कोई धनवान है !स्वतंत्र है ,कोई अच्छे पद पर कार्यरत है !स्वतंत्र है ,कोई देश की राजनीति में सहभागी है !स्वतंत्र है ,हम अच्छा जीवन व्यतीत कर रहें हैं !मतलब हम स्वतंत्र हैं। 
इस तरह के अनेकों विचार मेरे अंतरात्मा को झकझोड़ देतीं थीं ,जब मैं सत्यता से परिचित होता था। 
आज भी यही परिस्थितियां मन-मस्तिष्क में बारम्बार आतीं रहतीं हैं। 
यही वह मूल कारण है,मेरी लेखनी के क्षेत्र में प्रवेश करने का,क्योंकि मैं राजनेता नहीं जो जनता को भाषणों से आह्लादित करूँ ,मेरे पास एक अनमोल विधा है !लेखनी,जो प्रेरित है इन्हीं अनेकों क्रंदन करते विचारों से। 

बात उस समय की है ,जब मैं अपने अध्ययन के दौरान व्यस्त हुआ करता था ,सूक्ष्मजीवविज्ञान प्रयोगशाला मुझे संसार प्रतीत हुआ करती थी ,मुझे लगता यही जीवन है। मैं स्वतंत्र हूँ ! एक छोटे से प्रयोगशाला के दायरे में। 
जब कभी विश्वविद्यालय में पर्व के अवसरों के उपलक्ष में अवकाश हुआ करता ,मैं अपने जन्म स्थान (काशी) जाने के लिए तैयार होता। 
रेलगाड़ी (लौहपथ गामिनी ) के माध्यम से यात्रा किया करता ,परन्तु ज्यों ही मैं प्लेटफार्म (लौहपथ गामिनी विश्राम स्थल) की ओर प्रस्थान करता कुछ बच्चे अपनी दयनीय दशा (मैले-कुचैले ,फटे कपड़े पहनकर ) में मेरे पीछे दौड़ लगाते चंद पैसों व रोटी के लिये। जेब टटोलते हुए कुछ पैसे उनके हाथ पर रखता ,मन ही मन अपनेआप को  धिक्कारता हुआ गाड़ी में स्थान ग्रहण करता ,रास्ते भर यही सोचता ,मैं इंसान हूँ या पशु या इंसान होने का दिखावा कर रहा हूँ ,ये विचार मेरे मन में तब उतराते जब पास बैठा व्यक्ति यह
कहता नजर आता कुछ यूँ 
"आजकल लोग बेरोज़गारी बढ़ा रहें हैं, इन बच्चों को पैसे देकर इन्हें बढ़ावा दे रहें हैं।" मैं भी मन में अपने आप को कोसने लगता ,गाड़ी मध्यमार्ग में रुकती ,एक बालक (लगभग आठ-दस वर्ष का ) कुचली हुई बोतलों में पानी भरकर बेच रहा था,मैंने वो पानी खरीद लिया (पांच रूपए में ) ,मेरे बगल वाले स्थान पर बैठा व्यक्ति बोला,
"आजकल लोग गलत व्यवसाय को बढ़ावा दे रहें हैं",पुनः मैं विचार करने लगा कि क्या मैंने सही किया ? (पर आज संभवतः उन कथा बाचने वाले व्यक्तियों पर स्वयं लज्जा आने लगी है।) कुछ समय बीत जाने के बाद उन्हीं महानुभावों में से कुछ ज्ञानी श्रीमान ,राजनीति ,देश व स्वतंत्रता  का ब्यौरा देना शुरु कर देते ,एक-दूसरे को वाकयुद्ध में पटखनी देते नजर आते। मैं सहमा-सहमा सा उनके अनमोल विचार सुनता ,देखते-देखते एक बृद्धा जो लगभग असहाय थी (चूँकि द्वितीय श्रेणी में स्थान आरक्षित नहीं होता,जो लड़-लड़ाके पहले पहुँचा स्थान उसका ,स्वतंत्रता का अधिकार !),महिला ने प्रार्थना की कृपया थोड़ी जगह दें ,महानुभावों ने कहा- यहाँ स्थान खाली नहीं है आगे जाइये,जबकि श्रीमान दोनों पैर फैला कर बैठे थे! परंतु स्थान नहीं दे सकते (सार्वजनिक संपत्ति पर अधिकार ) ,मैंने उस महिला को अपना स्थान तो नहीं किन्तु अपने निकट थोड़ा स्थान अवश्य दे दिया ताकि वह  बैठ सके,रोते-धोते मैं अपने गंतव्य को पहुँचा,किन्तु यह यात्रा मेरे मन-मस्तिष्क को सदैव प्रयत्नशील बनाती रही,यह विचार करने के लिए कि क्या हम स्वतंत्रता का सही मायने में अर्थ समझ पायें हैं या नाटकीय ढंग से इसे परोसने का केवल दिखावामात्र  करते हैं, मेरे विचार से ! 

"तब तक हम स्वतंत्र नहीं हैं,जब तक हम अपने स्वयं के स्वार्थ भरे विचारों से पूर्णतया स्वतंत्र नहीं हो 
जाते"




                      "एकलव्य"

 "एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी हिंदी कविताओं एवं विचारों का संग्रह


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शुक्रवार, 10 मार्च 2017

"तूँ है एक अनुपम तस्वीर" 'नारी'


                                                    "तूँ है एक अनुपम तस्वीर" 'नारी' 
 चिरस्थाई जीवन वट "नारी" 



चिरस्थाई जीवन वट है 
शाखायें तेरी प्रबल धीर 
मानव मात्र की एक प्रेरणा 
बनकर खड़ी धरा अधीर,

संवेदनाओं में तेरी ममता 
छवि लक्षित तेरी गंभीर 
दया बनकर रग-रग में बसा है 
करती जीवन शुद्ध समीर,

धरा हुई है ,दुषित तुम बिन 
करे तूं निर्मल,मन के पीर 
चोट पे जैसे मरहम बनकर 
कष्ट हरे है ,पोंछे नीर,

नेत्र से तेरे अश्रु गिरतें 
वो भी लगतें,अमूल्य सीप 
जो पायें हैं,इनकों जग में 
बना है वो तो कौशल वीर,

मानव बना है आज स्वार्थी 
काटें हैं अपना ही मूल 
हरी-भरी धरती को बंज़र 
करता है जीवन प्रतिकूल,

तेरे त्याग को विस्मृत करके 
बने स्वयं उत्पत्ति का कर्ता 
समझ न इसको सत्य ज्ञान का 
प्रकृति की एक अदभुत रचना  

तूँ है एक अनुपम तस्वीर। .......तूँ है एक अनुपम तस्वीर।.......


                         "एकलव्य"
 "एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी हिंदी कविताओं एवं विचारों का संग्रह
 



         

"छोटी सी तितली" 'गीत' (पिता और पुत्री का रिश्ता)

                                                 
                         "छोटी सी तितली" 'गीत' (पिता और पुत्री का रिश्ता) 
 ''पिता और पुत्री का रिश्ता'' 



छोटी सी तितली बनकर है, उड़ती
मन के जहाँ में हमेशा 
बनके हमेशा यूँ आशा की किरणें 
देती है  मन को सहारा।

छोटी सी तितली बनकर है, उड़ती
मन के जहाँ में हमेशा ....... 

दिल ये हुआ है,पागल यूँ मेरा 
पाकर ये तेरा किनारा।

छोटी सी तितली बनकर है, उड़ती
मन के जहाँ में हमेशा ....... 

फिरता था मैं,यूँ पागल जो बनके 
तूने है मुझको सँवारा। 

दश्तक हमेशा मेरे अंजुमन में 
करतीं हैं, तेरी ये बातें,

बातें ये तेरी,ख़ुदा सी लगें 
ख़ुद के ख़ुदी को मैं भूला। 

क़िस्मत मेरी तूने, किस पल लिखी !
मुझको ख़ुदा तूं बता दे ,

बख़्शी है तूने ,रहमत ये तेरी 
बनके ख़ुदा-ए-हौशला,

छोटी सी तितली बनकर है, उड़ती
मन के जहाँ में हमेशा ....... 


                       "एकलव्य"
      "एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी हिंदी कविताओं एवं विचारों का संग्रह      
 

      
   

बुधवार, 8 मार्च 2017

"बाज़ारू हूँ, कहके"

                                         
                                                         "बाज़ारू हूँ, कहके"   
"सृजन प्रेरणा"  

बंध के बजती पैरों में मैं 
चाहे सुबह, हो शाम 
ले आती मैं,प्यार के बादल 
हो कोई खासो-आम,

कभी नायिका के, पैरों बंधकर 
मैं महफ़िल रंगीन करूँ 
नई-नवेली दुल्हन बनकर 
पिया का घर खुशियों से भरूँ,

ये समाज बांटे है मुझको 
दुनियां के दो खेमों में 
बिन ब्याही,घुँघरू जो पहनूँ 
गोरे-गोरे पाँवों में,

रात भये जो लोग हैं कहते 
स्वर्ग अप्सरा मान मुझे
बनकर भगवन प्राण लुटातें 
रात जाती हो,भोर तले,

हो प्रकाश जो दिनकर आयें 
छंटा अँधेरा,चंद्र तले 
अब लगती मैं,सुरसा डायन 
वही समाज है छींटा कंसे,

वही कहें हैं,तू है पतिता
जीवन का सर्वनाश करे 
रात्रि हुए थी,प्राणदायिनी
दिन के उजाले प्राण हरे,

अंधकार में कुछ ने लूटें 
कहकर प्रिय हो लाज़ मेरे 
वही प्रकाश में कहतें मुझको 
पाप है तूं ,दुनियां में बसे,

जो मंदिरा अधरों से लगायें 
छन-छन सुनकर राग कहें 
अचेत-चेत जो अपने खोये 
मन में ना वैराग्य जगे,

धर्म-अधर्म की बातें करतें 
बैठ धर्म की सीढ़ी पर
क्षण भर में वो भूल ही जाते 
कल बैठें थें,कोठे पर,

मेरा क्या है, मैं तो बजती 
मंदिर से चौराहों पर 
स्वर जो निकलें,कभी न बदलें 
मानव की इच्छाओं पर,

स्मरण मुझे है मैं थी दुल्हन 
बँधी थी मैं लाल रंग लगे 
ऐश्वर्य ढका घूँघट में मेरे 
बना समाज था लाज़ मेरे,

हर कोई देखा था मुझको 
भरी सम्मान के नयनों से 
खिल जातीं थीं बाँछे मेरी 
हो अभिभूत उन नेत्रों से,

हुई थी विधवा मैं जो पगली 
नयन वही जो मलिन हुए 
बनें थे पायल ग़म के आँसू 
बंधकर जो डोली थे चढ़ें,

कभी दीये जो घर के जलाये 
करूँ मैं रौशन महफ़िल आज 
बनकर चली सम्मान किसी दिन 
दिन है आज,जो खोऊँ लाज़,

शब्दों की ये अदला-बदली 
समझ सकी ना जो मैं पगली 
दिया था रुतबा देवी कहके 
आज उतारें हैं ,बाज़ारू हूँ, जो कहके.....बाज़ारू हूँ जो कहके.... 


                      "एकलव्य"
 "एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी हिंदी कविताओं एवं विचारों का संग्रह



मंगलवार, 7 मार्च 2017

"अभिव्यक्ति"(अनमोल मानस की प्रेरणा से)


                                   "अभिव्यक्ति"(अनमोल मानस की प्रेरणा से)      
 "अभिव्यक्ति"




विचारों की अभिव्यक्ति अपनी स्वतंत्रता रखती है। कहने को हम स्वतन्त्र हैं,वास्तविकता  में हम धकियानुसी विचारों में जकड़े हुए परतंत्र हैं। विचार एक ऐसा माध्यम है,जो अनेक राष्ट्रों को उनकी स्वयं की स्वतंत्रता के लिए लड़ना सिखाया,राष्ट्र में विस्तारित वैमनस्यता का अंत ही परिचायक है,किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्रता का। 
विचारों का इतिहास आदिकाल से चला आ रहा है ,अनेकों सभ्यतायें
जिसके स्वतंत्र अम्बर के नीचे फलीं-फूलीं,
एवं पल्लवित हुईं ,वरन जहाँ इसका हास् हुआ ,समूल सभ्यता ही विनाश की ओर अग्रसर हुईं । 
वर्तमान देशाटन में इसके विविध रूप देखने को मिलेंगे ,कभी गलत विचारों के रूप में, जो केवल स्वार्थपरक भावनाओं को ध्यान में रखकर सम्प्रेषित की गई हों ,जो समाज के उत्थान में नहीं अपितु हास् में निश्चय ही सार्थक सिद्ध हो रहीं हैं। 
इनका अनुसरण हम क्यों कर रहें हैं? इस प्रश्न का उत्तर मेरे विचार से,हममें तार्किकता का आभाव भी प्रादुर्भाव से स्थान रखता है। हम किसी भी कहे गये अथवा सम्प्रेषित किये गए कथनों पर पूर्णरूप से प्रकाश नहीं डालते,संभव है हम उजाले से भयभीत हैं क्योंकि हमारा समग्र जीवन ही अंधकार का आदी बन चुका है ,मिथ्या हमारे जिह्वा की संगिनी है ,सत्यता से हम लोहा ले चुके हैं जो हमारा परम वैरी है और यह तो सारभौमिक सत्य ही है,शत्रु के कहे गये वक्तव्य सदैव ही निर्थक होतें हैं ,चाहे वह शत्रु हमारा हित ही क्यों न चाहता हो,तो भी वह एक शत्रु ही है। अतः हम अंधकार को ही अपना परम हितैषी मानतें हैं एवं तर्क-वितर्क के षड़यंत्र में जुड़ने से अच्छा,स्वतंत्रता के अंधकार में जीवित रहना स्वीकार करेंगे ,चाहे मानव सभ्यता का समूल नाश ही क्यों न हो जाये। 

"अतः सारभौमिक सत्य 'अंधकार' बिना तर्क-वितर्क के ,विचारों का आदान-प्रदान है। 
संभवतः विकसित विचारों के लिए संसार में स्थानों की लघुता प्रतीत होती है।" 


                  "एकलव्य"  
"एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी हिंदी कविताओं एवं विचारों का संग्रह 


                 

"सूनें वीरानों में कभी-कभी"

                          
                                         "सूनें वीरानों में कभी-कभी"     
 "मेरी रचनायें,मेरे अंदर मचे,अंतर्द्वंद का परिणाम हैं"   


रोते-रोते छलक पड़तीं हैं 
कुछ बूँदें 
कलम से होकर 
मेरी डायरी पे, 

अनजाने में ही सही 
बन जाते हैं, कुछ नज़्म
मेरी ज़िंदगी के 
कभी-कभी,

लिखना चाहता नहीं 
अपने उन अनछुए पहलूं को 
कमबख़्त ये क़लम चलने लगती है 
अपने आप यूँ ही 
कोरे कागज़ क़ो चुमने 
कभी-कभी,

बार-बार चाय की चुस्कियाँ लेता हूँ 
दिल क़ो थोड़ा बहलाने क़ो 
चाय में चीनी मिलाना भूल जाता हूँ 
कुछ सोचते हुए मन में 
कभी-कभी,

दूर रखी डायरी,जैसे कुछ बोलती हो 
मुझसे तन्हाइयों में 
उठा लेता हूँ जिसे मैं,अपना मुक़्क़मल जहाँ मानकर 
कुछ सोचकर,कुछ लिखता हूँ 
अभी-अभी,

तैरतीं हैं,लाख़ों ख़्वाहिशें 
सूखे पत्तों की तरह मन में 
यादों की क़शिश इतनी तेज़ हैं 
जहन में,

चिपक जातीं हैं,मेरी डायरी क़े पन्नों में  
इतनी पकड़ से 
जो तैरते थे बनकर ख़्वाब, ख़्यालों में 
कभी-कभी,

रोक दूँ,इस क़लम की रफ़्तार 
मन करता है,कभी-कभी,

स्याह तो ख़त्म हो जायेगी 
इस ज़िंदगी की एक दिन 
रूह का क्या करूँ
अल्लाह से मुख़ातिब होती है जो 
कभी-कभी,

जो स्याही का ज़रिया है 
भरता रहेगा, ज़िस्म से
अलविदा होने के बाद भी 
सूनें वीरानों में 
कभी-कभी ...... कभी-कभी ......  


                      "एकलव्य"
"एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी  हिंदी कविताओं का संग्रह 

रविवार, 5 मार्च 2017

"मेरी हताशा"


                                                    "मेरी हताशा"   
 "मेरी हताशा"  


मेरी हताशा ....
दिल को जलाती 
कितना रुलाती  
हँसना मैं चाहूँ 
निराशा ये लाती 
मन के भँवर में 
डूबोती ये जाती, 

टूटी सी नौका की ,
पतवार है ये
गहरे समंदर की ,
मजधार है ये,

किनारे हैं ओझल 
जिसकी निशानी 
चारों तरफ़ है 
पानी ही पानी,

पानी नहीं  है 
आँखों का दरिया 
इतना है गहरा 
कोई पता ना,

अँधेरा है फैला 
जिसकी वज़ह से 
न दिखता सवेरा 
सूरज चमन में,

रातें हैं काली 
सपनों को लेकर 
पल-पल रुलाये 
इनकों सँजोकर ,

रातों को जागूँ 
इनकों समेटे
ओढूँ मैं इनकों 
तन पर लपेटे,

करवट मैं बदलूँ 
रातों-पहर 
फैलीं  हैं  आँखों में
बन के लहर,

उठती है, गिरती है
मन में हमेशा 
बहती है बनकर 
रेतों पे सपनें 
कहतीं  हैं बसकर
लिखना यूँ मुझपर 
मेरी हताशा ...मेरी हताशा ... .


                      "एकलव्य"
 "एकलव्य की प्यारी रचनायें " एक ह्रदयस्पर्शी  हिंदी कविताओं का संग्रह
 


   
    
  

"माँ के इस रुसवाई का"(बदलते दौर में माँ-बेटी का रिश्ता)


                 "माँ के इस रुसवाई का"(बदलते दौर में माँ-बेटी का रिश्ता)  
बदलते दौर में माँ-बेटी का रिश्ता 



रातों को मैं जागा करती 
कुछ पल तुझे सुलाने को 
पेट में आग लगी है मे्रे 
रोटी तुझे खिलाने को,

वर्षों रात जो सोई नहीं मैं 
कुछ पल तुझे हँसाने को 
तरसी हैं जो आँखें मेरी 
एक पल नींद ,न आने को,

सोचा था,तूं होगी सयानी 
कुछ पल मुझे,हँसाने को 
देगी गोद तूं ,मुझको अपनी
माथे पर सहलाने को ,

रात थी काली,बचपन तेरी 
बड़ी हो गई,हुआ सवेरा 
हरदम मैं यह सोचा करती 
भागेगा अब  दूर अँधेरा,

हर पल मुझको डाँटा करती 
छोटी सी उन बातों पे 
चलना सिखाया अंगुली पकड़कर 
कोमल से एहसासों से,

कल तक तुझको सिखलाया था 
बातें कैसे करते हैं 
तूँ तो अब, मुझको बतलाती 
बातें ऐसे करते हैं,

अब तो लगता,समझ न मुझको 
दुनियां की सच्चाई का 
सच-झूठ का फ़र्क न जाने 
माँ के इस,रुसवाई का .........


                "एकलव्य"   
"एकलव्य की प्यारी रचनायें " एक ह्रदयस्पर्शी  हिंदी कविताओं का संग्रह
   



   

   

शनिवार, 4 मार्च 2017

"बस एक काम चाहिए"


                                                      "बस एक काम चाहिए"  


बस एक काम चाहिए 
भूखे पेट को,आराम चाहिए 
रहने को घर नहीं 
ज़िंदगी में खुला,आसमान चाहिए ,

घर से निकलता हूँ रोज़  
एक अरमान लेकर
जीवनभर की कमाई 
चंद सामान लेकर,

मन में थोड़ा, पर 
भरा विश्वास लेकर 
हार चुका हूँ, पर 
जीत का एहसास लेकर,

हर सुबह लेकर आती है 
एक अधूरी सी प्यास 
मिल जाएगी, चंद पैसों की नौकरी 
पूरी होगी मन में जगी ,अधूरी सी आस,

आज फिर खड़ा हूँ 
साक्षात्कार की लंबी-लंबी कतारों में 
तौली जा रहीं,मेरी डिग्रीयां 
रद्दी के बाज़ारों में......... 



                         "एकलव्य"  
"एकलव्य की प्यारी रचनायें " एक ह्रदयस्पर्शी  हिंदी कविताओं का संग्रह 
   

    

शुक्रवार, 3 मार्च 2017

"मेरे आज़ाद शेर" भाग 'चार'


                                                  "मेरे आज़ाद शेर" भाग 'चार'   



चमकीली रूह क़ो ,जमीं पे न गिरने दो 
उड़ जायेंगे ये कुछ यूँ ,झोंके हवा के बनके।

मुक्क़दर नहीं है तेरा ,मिट्टी में यूँ ही मिलना 
मिलना ही है तो मिल जा ,बन जा तूं कोई सपना।

याद है लतीफ़ा ,मेरे वालिद सुनाया करते 
जिन्न से भरा वो बोतल ,मुझको दिखाया करते। 

दुनियां भरी है जिन्न से ,किसको भरूँ जहन में 
बोतल है मेरी ख़ाली ,किसको लगाऊँ मन से। 

ख़ाली है मेरी वादी ,सुनी मेरी रियासत 
घोड़ों की टापें कहतीं ,गुज़री मेरी कहानी। 

एक वक़्त था वो भी ,सबकी कहानी लिखता 
बन गया ख़ुद कहानी ,ताबूत में यूँ आक़र। 

बादशाह तो मैं अब भी हूँ ,ख़ामोश मेरे प्यादे 
बादशाहत है मेरी क़ायम ,बस दबीं जुबां से। 

पत्थर में मैं दफ़न हूँ ,बुत्त ख़ामोश बनकर 
सीने ढकें हैं  मे्रे ,मिट्टी की धूल बनकर। 

सिर पे लगें हैं पत्थर ,कुछ जानशीं बनके 
तराशा है ख़ुद, ख़ुदा ने ,नुमाइंदगी में मे्रे आक़र।


                              "एकलव्य"  

  

"हिंदी" आज स्वयं में ही अंतर्नाद कर रही है

 "हिंदी"   


                    "हिंदी" आज स्वयं में ही अंतर्नाद कर रही है      


हम भारतीय हैं ,भारतवासी हैं ,हमें अपने भारतीय होने पर गर्व है है ,
परंतु कभी हमनें  यह विचार किया है , कि भारतीय केवल क्षणमात्र कह देने से 
कोई भी राष्ट्र यह स्वीकार नहीं कर लेता ,कि हम अपने देश के एक सच्चे नागरिक हैं। 
किसी भी राष्ट्र का प्रभुत्व ,यह निर्दिष्ट करता है,कि उसका प्रभाव केवल उसके नागरिक होने से नहीं ,
अपितु उसकी परम्परा ,भाषाशैली एवं संस्कृति का प्रभाव कहाँ तक ,कितनी सीमा तक विस्तारित है। 
भारतेंदु के ये वाक्य हमने बचपन में पढ़ा था "किसी राष्ट्र की भाषा ही ,उस राष्ट्र के उन्नति का मूल है"
परंतु आज स्वयं ही हम इसे काटने पर आमादा हैं। 
यदि आप सामाजिक अनुप्रेषण की बात करें ,तो गौर कर सकते हैं ,पाश्चात्य राष्ट्र अपनी मातृभाषा का उपयोग 
बड़ी ही राष्ट्रभक्ति के साथ कर रहें हैं ,रही-सही कसर हम भारतवासी पूर्ण कर रहें हैं,मैं मानता हूँ भाषाओं की कोई सीमा नही होती, यह विचारों के आदान-प्रदान का एक माध्यम है, तो वही स्नेह हम अपनी मातृभाषा से भी दिखाएं अन्य भाषाओं के साथ इसे मुख्य धारा में जोड़कर विचारों का आदान-प्रदान करें।  मेरी लेखनी में  यदि कोई मिथ्या हो ,तो आप मेरे वक्तव्य से असहमत हो सकते हैं। 
"क्योंकि हमारा राष्ट्र एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है ,यही हमारी शक्ति का द्योत्तक है"
चंद वाक्य ,जो वास्तव  में मेरे मौलिक विचार हैं ,आपको सम्प्रेषित कर रहा हूँ ,जिसका उत्तरदायित्व भी 
स्वीकार करता हूँ।  
"हिंदी" आज स्वयं में ही अंतर्नाद कर रही है ,अपनों की अनदेखी झेल रही है क्यों ?ये देखा जा रहा है लोग अपनी ही मातृभाषा को लिखने और पढ़ने में लज्जा का अनुभव कर रहें हैं, जबकि किसी देश की भाषा ही उसकी उन्नति का मूल है।"

               "एकलव्य" 
"एकलव्य की प्यारी रचनायें " एक ह्रदयस्पर्शी  हिंदी कविताओं का संग्रह


    

"मन श्याम रंग" 'भजन'


श्री कृष्ण "लीला" 
                                                          
मन श्याम रंग विचार में तज, भूलत है सबको  अभी 
कुछ नींद में सपनें सजत ,चित्त रोअत है अभीभूत बन। 

धरे हाँथ सुंदर बाँसुरी ,कसे केश अपने मयूर पंख 
जग कहत जिनको त्रिकालदर्शन,हो प्रतीत ह्रदय निकट।

 मन श्याम रंग विचार में तज, भूलत है सबको  अभी 
कुछ नींद में सपनें सजत ,चित्त रोअत है अभीभूत बन। 

बन बिम्ब मेरी वो खड़ा ,पत्थर की प्रतिमा में कहीं 
है झाँकता मन में मेरे ,बन ह्रदय की धड़कन सा मे्रे । 

ब्रहमांड मुख में समात है ,पर चरण धरती पर धरत 
जग का तूं पालनहार ,पर पालत माँ है, यशोदा बन। 

मन श्याम रंग विचार में तज, भूलत है सबको  अभी 
कुछ नींद में सपनें सजत ,चित्त रोअत है अभीभूत बन। 

छुप-छुप के माटी खात है ,जो धरती तेरे तन बसी 
लीलायें अदभुत करता है ,जो मन को शीतल हैं लगत। 

दिनभर क्रीडायें  करत है,बन लाल गोकुल का मे्रे  
माखन चुराये घर में जाकर ,गोपीयों के साँवरे। 

यशोदा है झिड़कत हर बखत ,नट्खट बड़ा है साँवरे 
लीला दिखाए हर घड़ी ,जानत यशोदा बाँवरे। 

मन श्याम रंग विचार में तज, भूलत है सबको  अभी 
कुछ नींद में सपनें सजत ,चित्त रोअत है अभीभूत बन। 

भर आँख आवत याद कर ,ममता यशोदा के तले 
रज से भरे मैदान सब ,कालिंदी तट से थे लगे। 

मन श्याम रंग विचार में तज भूलत है ,सबको  अभी 
कुछ नींद में सपनें सजत ,चित्त रोअत है अभीभूत बन।  .......... 



                               "एकलव्य"    
श्री कृष्ण "लीला" 

गुरुवार, 2 मार्च 2017

"परिवर्तन"


                                                          "परिवर्तन"                              


युग निर्माण की ,तूं है दस्तक़ 
अंत जहाँ है ,तूं परिवर्तन
सदियां बीतें ,आये सदियां 
बदले चेहरे ,बदले दुनियां ,

कहीं उजड़ते कारवां के मेले 
बसती है ,बस्ती कहीं 
बदले ना सिंहासन के पाये 
लाखों बदले सिंह वहीं ,

आशियां कई ,खण्डहर बने 
हुए खण्डहर ,आशियां 
गरजतीं चींखें दबतीं गईं 
दबतीं चींखें ,गर्जना ,

काल-कलवित ,कुछ हुए 
कुछ हुए ,पल्लवित अभी 
एक जीवन किलकारियाँ करता 
तोड़ता हो दम कोई ,

मेरे लिये हैं ,एक समान 
महल हो या झोपड़ी 
मेरा पहिया ,यूँ ही चलता 
धूप हो या चाँदनी ,

अज्ञान का पुतला बना 
देखता मानव वहीं 
कहता ,स्थिर बिम्ब हूँ 
विश्व की तक़दीर हूँ ,

आग़ की लपटों में लिपटा 
ख़ुद की मैं ,तक़दीर हूँ 
एक स्थाई बुलबुला 
मैं अचल और धीर हूँ ,

पर समय के हाँथ लिपटा 
मैं तो बस ,एक डोर हूँ 
इशारों पे हूँ ,नाचता 
पुतली सा मैं ,शेर हूँ। ........ 


     "एकलव्य" 






बुधवार, 1 मार्च 2017

"लगा के पंख सपनों के"


                                         "लगा के पंख सपनों के"           
               
लगा के पंख सपनों के 
सोचता हूँ ,मैं उड़ जाऊँ 
जला के झूठी दुनियां को 
चाहता हूँ ख़ुद जल जाऊँ ,

जल गई ये दुनियां 
धुँए उठेंगे ज़रुर 
धुंध भरे आशियानों में 
ओस की बूंदे बन जाऊँ ,

भारी हुआ, तो गिर जाऊँगा 
जमीं पर अपने आप 
चाहता हूँ सींच दूँ,ये धरती प्यारी 
एक नई फ़सल बन जाऊँ ,

क़ोहराम मचा है,धरती पर 
दो जून की रोटी को 
ख़ुद कट जाऊँ 
दूसरों के मुँह का निवाला बन जाऊँ,

अंधकार भरी धरती 
प्रकाश को तरसती है 
अधबुझा,जलता ही सही
दूसरों के रास्ते का,उजाला बन जाऊँ,

ज्ञात है मुझे,कुछ देर ही जलूँगा 
कुछ पल ही सही 
मंज़िल पाने का,इशारा बन जाऊँ ,

हर व्यक्ति,जो मज़बूर है 
 रोने को ज़िंदगी भर
क्षण भर हँसने के लिए,
ख़ूबसूरत नज़ारा बन जाऊँ
लगा के पंख सपनों के,सोचता हूँ ,मैं उड़ जाऊँ ........  



    "एकलव्य"  
 

   

"तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'तीन'


                                                            "तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'तीन' 
     

दिन भर ,पानी भरे तालाब में कंकड़ मारा करता हूँ
कहीं कोई और मिल जाये ,यही इशारा करता हूँ ,

कुछ हलचल पानी में हरपल होती है
कुछ तरंगें ,दिल के कोनों में उठतीं हैं
लगता है मेरे ही जैसा ,कोई ताक रहा है
पल-पल मुझे वो ,भाँप रहा है ,

प्रतीत होता है ,मुझसे कुछ कहना चाहता है
दिल के सारे गुब्बार ,निकालना चाहता है ,

हल्की सी परछाईं दिखती है, एक पल को  मुझे
छोटी सी कसक उठती है ,अनछुए मन में मेरे ,

कौन है ?जो मुझे, ताक रहा है
कौन है ?जो मुझे, भाँप रहा है
क्या ये मैं ही हूँ ?सहमा -सहमा सा
क्या ये मैं ही हूँ ?हैंरा -हैंरा सा ,

चलो जो भी हो ,कोई साथ तो मिला
जीवन की राहों पर ,कोई हाथ तो मिला ,

परछाईं ही सही ,साथ तो है
अंगड़ाई ही सही ,आश तो है,

ज़िंदगी काट लूँगा ,इन्हीं परछाईयों के साथ
सुख-दुःख बाँट लूँगा ,इन्हीं अंगड़ाइयों के साथ ,

मैं और क़ेवल मैं ,और मेरी परछाईयाँ। .......


     "एकलव्य"