"तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'तीन'
दिन भर ,पानी भरे तालाब में कंकड़ मारा करता हूँ
कहीं कोई और मिल जाये ,यही इशारा करता हूँ ,
कुछ हलचल पानी में हरपल होती है
कुछ तरंगें ,दिल के कोनों में उठतीं हैं
लगता है मेरे ही जैसा ,कोई ताक रहा है
पल-पल मुझे वो ,भाँप रहा है ,
प्रतीत होता है ,मुझसे कुछ कहना चाहता है
दिल के सारे गुब्बार ,निकालना चाहता है ,
हल्की सी परछाईं दिखती है, एक पल को मुझे
छोटी सी कसक उठती है ,अनछुए मन में मेरे ,
कौन है ?जो मुझे, ताक रहा है
कौन है ?जो मुझे, भाँप रहा है
क्या ये मैं ही हूँ ?सहमा -सहमा सा
क्या ये मैं ही हूँ ?हैंरा -हैंरा सा ,
चलो जो भी हो ,कोई साथ तो मिला
जीवन की राहों पर ,कोई हाथ तो मिला ,
परछाईं ही सही ,साथ तो है
अंगड़ाई ही सही ,आश तो है,
ज़िंदगी काट लूँगा ,इन्हीं परछाईयों के साथ
सुख-दुःख बाँट लूँगा ,इन्हीं अंगड़ाइयों के साथ ,
मैं और क़ेवल मैं ,और मेरी परछाईयाँ। .......
"एकलव्य"
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