"बाज़ारू हूँ, कहके"
"सृजन प्रेरणा" |
बंध के बजती पैरों में मैं
चाहे सुबह, हो शाम
ले आती मैं,प्यार के बादल
हो कोई खासो-आम,
कभी नायिका के, पैरों बंधकर
मैं महफ़िल रंगीन करूँ
नई-नवेली दुल्हन बनकर
पिया का घर खुशियों से भरूँ,
ये समाज बांटे है मुझको
दुनियां के दो खेमों में
बिन ब्याही,घुँघरू जो पहनूँ
गोरे-गोरे पाँवों में,
रात भये जो लोग हैं कहते
स्वर्ग अप्सरा मान मुझे
बनकर भगवन प्राण लुटातें
रात जाती हो,भोर तले,
हो प्रकाश जो दिनकर आयें
छंटा अँधेरा,चंद्र तले
अब लगती मैं,सुरसा डायन
वही समाज है छींटा कंसे,
वही कहें हैं,तू है पतिता
जीवन का सर्वनाश करे
रात्रि हुए थी,प्राणदायिनी
दिन के उजाले प्राण हरे,
अंधकार में कुछ ने लूटें
कहकर प्रिय हो लाज़ मेरे
वही प्रकाश में कहतें मुझको
पाप है तूं ,दुनियां में बसे,
जो मंदिरा अधरों से लगायें
छन-छन सुनकर राग कहें
अचेत-चेत जो अपने खोये
मन में ना वैराग्य जगे,
धर्म-अधर्म की बातें करतें
बैठ धर्म की सीढ़ी पर
क्षण भर में वो भूल ही जाते
कल बैठें थें,कोठे पर,
मेरा क्या है, मैं तो बजती
मंदिर से चौराहों पर
स्वर जो निकलें,कभी न बदलें
मानव की इच्छाओं पर,
स्मरण मुझे है मैं थी दुल्हन
बँधी थी मैं लाल रंग लगे
ऐश्वर्य ढका घूँघट में मेरे
बना समाज था लाज़ मेरे,
हर कोई देखा था मुझको
भरी सम्मान के नयनों से
खिल जातीं थीं बाँछे मेरी
हो अभिभूत उन नेत्रों से,
हुई थी विधवा मैं जो पगली
नयन वही जो मलिन हुए
बनें थे पायल ग़म के आँसू
बंधकर जो डोली थे चढ़ें,
कभी दीये जो घर के जलाये
करूँ मैं रौशन महफ़िल आज
बनकर चली सम्मान किसी दिन
दिन है आज,जो खोऊँ लाज़,
शब्दों की ये अदला-बदली
समझ सकी ना जो मैं पगली
दिया था रुतबा देवी कहके
आज उतारें हैं ,बाज़ारू हूँ, जो कहके.....बाज़ारू हूँ जो कहके....
"एकलव्य"
"एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी हिंदी कविताओं एवं विचारों का संग्रह |
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