आपका स्वागत है।

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

वे कह गये थे अक़्स से... ( 'नवगीत' )




वे कह गये थे अक़्स से...'नवगीत' )

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!
मैं जा रहा हूँ, वक़्त से
नज़रे मिलाना तुम !

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!
ख़ाक में, हूँ मिल गया 
ज़र्रा हुआ माटी, 
मेहनतों के बीज से  
फसलें उगाना तुम !

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!

बह गई है शाम 
फिर अब न आयेगी, 
चिलचिलाती धूप में 
दीपक जलाना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!

हो नहीं सकता ये रिश्ता 
बादलों से नेक,
कुएँ की नालियों से पेटभर 
पानी पिलाना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!


दीवारें हिल नहीं सकती हैं,  
काग़ज़ के पुलिंदों से  
सितमग़र वे रहेंगे बाग़ में 
मरहम लगाना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!


नृत्य करता मोर है 
कहते रहेंगे वो,
काम है उनका, 
हमेशा का यही हर-रोज़
      सर बाँधकर पैग़ाम यह,      
सबको बताना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!

सरताज़ हैं, सरकार हैं 
हर ताज़ पर काबिज़,
हर रोज़ ढलती शामों की 
क़ीमत चुकाना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!
बोतलों को मुँह में भर 
जो लिख रहे कविता, 
फूस की रोटी जली 
उनको खिलाना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!

'जयशंकरों' की भीड़ में ग़ुम 
सत्य का साहित्य
'प्रेम' का साहित्य है
उनको बताना तुम! 

वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!
मैं जा रहा हूँ, वक़्त से
नज़रे मिलाना तुम !

'एकलव्य'

( मेरा यह 'नवगीत' कथासम्राट आदरणीय मुंशी प्रेमचंद जी को समर्पित है। )   

  

गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

एन.आर.सी है कि बवाल ! (लघुकथा)



 एन.आर.सी है कि बवाल ! (लघुकथा) 


रामखेलावन, पैर पटकता हुआ अपने फूस की मड़ई में प्रवेश करता है और पागलों की तरह घर के कोने में पड़े जंग लगे संदूक को खोलकर जल्दी-जल्दी उसमें पड़े कपड़ों और पुराने सामानों को इधर-उधर मिट्टी के फ़र्श पर फेंकते हुए चींख़ता है,

"अरे ओ नटिया की अम्मा!"
"मर गई का!"
"कहाँ है ?"
"ज़ल्दी इधर आ!"

फूलन देवी अपनी साड़ी के पल्लू को संभालती हुई रसोईं से अपने पति रामखेलावन की ओर दौड़ती हुई,

"का हुआ ?"
"काहे आसमान फाड़ रहे हो!"
"अउर ई का!"
"ई का कर रहे हो ?"       
"भाँग-वाँग खा लिये हो का!"   
"सारा सामान ज़मीन पर काहे फेंक रहे हो ?"
"का चाहिये तोका ?"
"हमसे कहते, हम निकाल देते।"
फूलन, रामखेलावन पर चिल्लाती हुई अपनी साड़ी के पल्लू को आटे लगे हाथों से ठीक करती है,
"का हुआ ?"
"इतना काहे सुरियाये हो!"

"अरे गज़ब हो गवा!"
"ऊ ससुरा एन.आर.सी आवे वाला है!"
कहता हुआ रामखेलावन अपने कंधे पर रखे मैले गमछे से अपने माथे का पसीना पौंछता है।
"अरे आज मुखिया जी पंचायत बुलाये रहे।"
"वे कह रहे थे कि एन.आर.सी ससुर आ धमका है!"
"सबही गाँव वाले अपना-अपना पहचान-पत्र और कउनो ज़मीन के काग़ज़ तैयार रखें!"
"नाही तो गाँव से उसका हुक़्क़ा-पानी सबही बंद कर दिया जायेगा और गाँव से बाहर निकाल दिया जायेगा!"

"अरे, कइसे निकाल देंगे हमको!"
"हमरे बाप-दादा यहीं रहे हमेशा और हमें कइसे निकाल देंगे!"
"का कउनो हलुआ है का!"
"अउर सभही का यही रहेंगे ?"
कहती हुई फूलन अपना विरोध दर्ज़ कराती है।

मुखिया जी कह रहे थे कि-
"केवल ज़मींदार साहेब!"
"लाला जी!"
"अउरो ऊ पुरोहित जी!"
"ई गाँव में रहेंगे!"
कहते हुए रामखेलावन पश्चातापभरी आँखों से फूलन को देखता रहा।

"अरे, ई का!"
"काहे ऊ काहे रहेंगे ?"
"उनही के बाप-दादा खाली चमेली का तेल अपने उजड़े चमन में लगाये रहे का जो सारे गाँव में अब तक महक रहा है!"
रामखेलावन फूलन को समझाता हुआ-
"अरे नाही!"
"ई बात नहीं है!"
"असल में उनके बाप-दादा पढ़े-लिखे रहे, सो उनके पूरे ख़ानदान का नाम गाँव के पंचायत-भवन के रजिस्टर में मौज़ूद रहा!"

"हम सब ठहरे अँगूठा-टेक!"
 "अउर का!"

"तो का मतबल!"
"हमार नटिया भी गाँव में न रहेगी!"
फूलन के इस मासूम से सवाल पर रामखेलावन सजल आँखों से उसे एक टक देखता रह गया!                                   

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

दो लघुकथाएँ

छुटकारा ( लघुकथा )


"बोल-बोल रानी! कितना पानी ?
 नदिया सूखी, भागी नानी।" 
कहते हुए ननुआ मदारी अपने बंदर और बंदरिया को अपनी पीठ के चारों ओर घुमाता हुआ, "क़दरदान !  मेहरबान! अपनी झोली खोलकर पैसा दीजिए! भगवान के नाम पर, इन मासूम खिलाड़ी बंदर-बंदरिया की रोज़ी-रोटी के वास्ते! दीजिए! दीजिए!
साहेबान!
निग़हबान!
चलो भईया! आज का खेल यहीं ख़त्म!'' कहते हुए ननुआ मदारी अपना करामाती थैला समेटता है और घर की ओर अपने बंदर-बंदरिया को लेकर चल पड़ता है। घर के दरवाज़े पर पहुँचते ही उसको उसकी माँ की दर्दभरी खाँसी सुनायी देती है और वह जाकर उसके सिरहाने यह कहते हुए बैठ जाता है कि,

''माँ कल थोड़े पैसे और हो जायें तो तुझे अच्छे डॉक्टर को दिखाऊँगा।"  
इधर ननुआ की बंदरिया भी कुछ दिनों से बीमार चल रही थी जिसके सर को उसका बंदर अपनी गोद में रखकर सहला रहा था और ननुआ की अपनी माँ से वार्तालाप भी बड़े ध्यान से सुन रहा था। दूसरे दिन ननुआ यह जानते हुए कि उसकी बंदरिया बहुत बीमार है, दोनों को लेकर खेल दिखाने निकल गया। 
साहेबान!
क़दरदान! 
अब देखिये, मेरा बंदर अपनी बंदरिया को गोली से उड़ा देगा !
''ठाँय-ठाँय !"
बंदरिया ज़मीन पर गिर पड़ी। बंदर ने उसे कफ़न ओढ़ाया । साहेबान!
क़दरदान!
"अब देखिए हमारा बंदर अपनी बंदरिया को कैसे जीवित करता है।''

ननुआ का बंदर अपनी बंदरिया को उठाने के लिये झिंझोड़ने लगा। बंदरिया दोबारा नहीं उठी। संभवतः उसे अपने रोज़-रोज़ के झूठ-मूठ के मरने से सच में छुटकारा मिल चुका था। बंदर वहीं अपनी बंदरिया की लाश के पास बैठा-बैठा आसमान की ओर निःशब्द, निर्निमेष देख रहा था मानो वह अपनी बंदरिया की आत्मा को महसूसकर  मन ही मन कह रहा हो-
"चलो अच्छा हुआ, तुझे कम से कम इस नरक से छुटकारा तो मिला!''



ठेठ पाती ( लघुकथा ) 

"सुनो!
सुनो!
सुनो!"

''सभी गाँव वालों ध्यान से सुनो!"
"विधायक जी ने गाँव की महिलाओं और लड़कियों हेतु एक 'चिट्ठी लिखो प्रतियोगिता' का आयोजन किया है।" "जीतने वाली प्रतिभागी को हमारे विधायक जी स्वयं पंद्रह अगस्त को एक हज़ार रुपये की पुरस्कार राशि से पुरस्कृत करेंगे।"
"सुनो!
सुनो!
सुनो!"
कहते हुए नेताजी का संदेशवाहक अपनी टुटपुँजिया साइकिल अपने बलपूर्वक खींचता हुआ गाँव के बाहर निकल गया। 
"अरे ओ परवतिया!"
"सुनती है!"
"देख गाँव में कउनो खेला होने वाला है।"
"तुम भी काहे नहीं चली जाती!"
कहते हुए परवतिया के ससुर अपना ख़ानदानी हुक़्क़ा गुड़गुड़ाने लगते हैं। 
"ठीक है!"
"सुन लिया!"
"मैं कल पंचायत-भवन में चली जाऊँगी अपना बोरिया-बिस्तर लेकर।"
कहती हुई परवतिया बैलों की नाद में भूसा डालने लगती है। 
दूसरी सुबह परवतिया गाँव के पंचायत-भवन पहुँचती है जहाँ और बाक़ी महिलाएँ आयोजनकर्मियों द्वारा दिये गये काग़ज़ पर कुछ लिखने में व्यस्त थीं। परवतिया कुछ समझ पाती उसके पहले ही एक कर्मी ने उसके हाथों में एक सादा काग़ज़ और क़लम पकड़ाते हुए दूसरे कोने में बैठ जाने का इशारा करता है और कहता है कि-
''देश के विकास के नाम एक पाती लिखो!"
परवतिया कुछ सोचती हुई पंचायत-भवन के एक कोने में जा बैठती है और अपनी टूटी-फूटी भाषा में कुछ लिखने लगती है। 
"पणाम! हम कहे रहे, इहाँ सबहि ठीक बा" 
हऊ केदार राम के गदेलवा विकशवा, मुआं 
कबही से बेमार रहा। कलिया बता रही थी कि, ऊ मुआं झोलाछाप वैद्यवा के कारन विकशवा का तबियत ढेर ख़राब हो गवा रहा!"
"तबही नये वैद के यहाँ ओकरी माई ले गयी रहिन!"
"आज भोरहरी ओकर मृत्यु हो गयी रही!''
"सुनने में आ रहा था कि ई नया वैद दवाई का तनिक बेसी ख़ुराक़ दे दिआ रहा!"
"बाक़ी सबहि कुशल मंगल! हमरी बकरिया छबीली, कलही से पानी नाही गटक रही है!
"बाक़ी खबर आने पर पता लगेगा!"

"तुम्हरे चरनों की धूल!"
परवतिया 

ध्रुव सिंह 'एकलव्य'  


सोमवार, 25 नवंबर 2019

'क्रान्ति-भ्रमित'



'क्रान्ति-भ्रमित'  

चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


लुट रहीं हैं सिसकियाँ, तू वेदनारहित है क्यूँ ?
सो रहीं ख़ामोशियाँ, तू माटी-सा बना है बुत !

धर कलम तू हाथों में, क्रान्ति का नाम दे !
नींद में हैं शव बने, तू आज उनमें प्राण दे !

चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


मैं अकेला चल रहा हूँ, कोई रास्ता नहीं 
धर्म क्या है, भेद क्या, उनसे वास्ता नहीं 
रास्ते बहुत मिलेंगे, तेरी ठोकरों तले,
रश्मिपुंज खिल उठेंगे, इस धरा की धूल में। 


चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


कोटि-कोटि के कणों से, एक राग फूटेगी 
शंखनाद केशवों के, रणविजय में गूँजेगी 
बन रथी का सारथी, मैं एक गीत गाऊँगा 
धर्म ही अधर्म है, कि शंख मैं बजाऊँगा। 


चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


आँखों में 'भगत' रहेंगे, माथों पर सिकन लिये 
'प्रेमचंद' लेखनी में, हाथों में कलम लिये। 
'बापूनेत्र' रो रहे हैं, इस धरा को देखकर 
'प्राण' तिलमिला रहे हैं, स्वर्ग सोच-सोचकर। 


सोज़े-वतन की बात तो, अब कहानी हो चली 
देश की कहानियाँ, अब पुरानी हो चलीं। 
सच कहूँ, हम सो रहे हैं लाशों की दुकान पर, 
रक्त की कमी रगों में, बर्फ़ हैं जमे हुये। 


चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


           
सो रहा है लोकतंत्र, लेटकर यूँ खाट पर 
खा रहे हैं देश को, श्वेत बाँट-बाँटकर। 
देश की इबादतों में, देशप्रेम शून्य है 
शून्य से शतक बना, ये उनका ही ज़ुनून है।  


  ये उनका ही ज़ुनून है..... 
  ये उनका ही ज़ुनून है..... 
   

'एकलव्य' 
    

सोमवार, 11 नवंबर 2019

भागते रास्ते.... ( गीत )






भागते रास्ते....  ( गीत )




वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए ..... इसी रास्ते .....

मैं पुकारता ....यों ही रह गया
दबता गया  .......    क़दमों तले ....

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

एक चीख़-सी ....  घुलती गयी ...... सुनता नहीं है ख़ुदा मेरा
शहनाइयाँ हैं कहीं बजे .......जलसा बड़ा है, नया-नया

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

लेटा रहा ...... इसी तख़्त पे, ज़हमत सही वे आ रहे
आँखों से गिरते अश्क वो, वे कह रहे हैं ......ख़ुदा-ख़ुदा

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए ..... इसी रास्ते .....

अब चलने को तैयार हैं ......मेला लगा देखो नसीब .....
वे कह रहे........ ग़मगीन हैं, अवसाद से हूँ भरा-भरा

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

ठोकर में रक्खा था बहुत.... कोने का मैं सामान था
अब याद ... आता हूँ उन्हें, कहते हैं मुझको ख़रा-ख़रा.....

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

पाले बहुत थे स्वप्न जो .... पलभर में ज़र्रे हो गये
मौसम बड़ा ही ख़राब था ..... क़िस्मत ही ऐसी थी मेरी

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए .....  इसी रास्ते .....

मैं झाँकता .....  हूँ...... कुआँ-कुआँ, भरने को ख़ाली मन मेरा
नापा तो रस्सी छोटी थी,  घिरनी पे लटका ....रह गया

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए .....  इसी रास्ते .....

कुछ रह गये  ....ज़िंदा यहाँ .....वे कह गये .....  हम चल दिये
अब रह गयीं .....वीरानियाँ। ......मौजों में, वे तो बह गये । ....     

मरघट पे होगा .....ज़श्न-सा ......दीपक बनूँगा......  मैं यहाँ........
रौशन करूँगा .......  ये जहां ...... माटी-सा ख़ुद रह जाऊँगा। ......

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए ...... इसी रास्ते .....


'एकलव्य'



गुरुवार, 7 नवंबर 2019

१९वें अखिल भारतीय सम्मान "२०१९ हिंदी साहित्य दिव्य शिक्षारत्न सम्मान"









१९वें अखिल भारतीय सम्मान  "२०१९ हिंदी साहित्य दिव्य शिक्षारत्न सम्मान



अत्यंत हर्ष के साथ आप सभी गणमान्य पाठकों एवं लेखकों को सूचित कर रहा हूँ कि मुझे, मेरी प्रथम पुस्तक ''चीख़ती आवाज़ें" हेतु सरिता लोकसेवा संस्थान' उत्तर प्रदेश द्वारा, १९वें अखिल भारतीय सम्मान  "२०१९ साहित्य दिव्य शिक्षारत्न सम्मान" एवं अंगवस्त्रम, चित्रकूट विश्वविद्यालय के आदरणीय 
कुलपति द्वारा, अन्य प्रतिष्ठित साहित्यकारों की गरिमामयी उपस्थिति में, 
अयोध्या के तुलसीदास शोध संस्थान के प्रेक्षागृह में ससम्मान प्रदान किया गया। 
मेरे अब तक के साहित्य यात्रा में आप लोगों का साथ एवं सहयोग जिसका 
परिणाम यह सम्मान है जिसके लिए मैं आप सभी को 
धन्यवाद प्रेषित करता हूँ। सादर 'एकलव्य'


   

मंगलवार, 5 नवंबर 2019

उठा-पटक



उठा-पटक  

खेल रहे थे राम-राज्य का 
गली-गली हम खेल,
आओ-आओ, मिलकर खेलें 
पकड़ नब्ज़ की रेल। 

मौसी तू तो कानी कुतिया 
खाना चाहे भेल 
मौसा डाली लटक रहे हैं,
उचक-उचक कर ठेल। 

मौसी कहती, जुगत लगा रे 
कैसे पसरे खेल !
धमा-चौकड़ी बुआ मचाती 
कहती लेखक मेल। 

मिल-जुलकर सबने जलाई 
वही धर्म की आग 
बुआ-मौसी, चाचा-चाची 
बैठे जिसके पास 
जिसे देखकर 'नागा' की भी 
चकिया रही उदास। 

दी फेंककर मारा बटुआ 
उस राही के सर,
पागल-पथिक हुआ बेचारा,
भागा अपने घर। 

खेल-खेल में लिपट-लेखनी, 
वही धर्म की आग  
धर्म-परायण बन बैठे सब 
हिन्दी रही उदास। 

छपने लगे ख़बर मूरख के 
पहना साहित्य के चोल,
गोरिल्ला ने समझ चोल की 
खोली उनकी पोल। 

इसी बात पर बूढ़ी-बिल्ली 
तमग़ा लेकर आई,
झाड़-पौंछकर उल्लू बैठा 
देने लगा दुहाई। 

मौक़ा पाकर मौसी ने 
ऐसा कोहराम मचाया 
खेत रहे 'महाप्राण' निलय के 
पितरों ने शीश नवाया। 

इंद्र-रवींद्र बचा रहे थे 
भाग-भागकर प्राण,
वेणु ने रण-शंख बजाया 
ठोक-ठोक कर ताल। 

ब्लॉग-जगत की माया में 
यह कैसी माया छायी 
सिर से पैर तलक हर कोई 
बनने लगा निमाई।

एक मुख अल्लाह है बैठा 
दूजे मुख से राम,
सत्य नाम साहित्य रह गया
हो गया काम-तमाम !     

एक धड़ा साहित्य-समाज का 
रचता कैसा खेल,
द्वितीय श्रेणी साहित्य है बैठा,
प्रथम धर्म का ठेल !


'एकलव्य'