वे कह गये थे अक़्स से... ( 'नवगीत' )
वे कह गये थे अक़्स से
परदे हटाना तुम!
मैं जा रहा हूँ, वक़्त से
नज़रे मिलाना तुम !
वे कह गये थे अक़्स से
परदे हटाना तुम!
ख़ाक में, हूँ मिल गया
ज़र्रा हुआ माटी,
मेहनतों के बीज से
फसलें उगाना तुम !
वे कह गये थे अक़्स से
परदे हटाना तुम!
बह गई है शाम
फिर अब न आयेगी,
चिलचिलाती धूप में
दीपक जलाना तुम!
वे कह गये थे अक़्स से
परदे हटाना तुम!
हो नहीं सकता ये रिश्ता
बादलों से नेक,
कुएँ की नालियों से पेटभर
पानी पिलाना तुम!
वे कह गये थे अक़्स से
परदे हटाना तुम!
दीवारें हिल नहीं सकती हैं,
काग़ज़ के पुलिंदों से
सितमग़र वे रहेंगे बाग़ में
मरहम लगाना तुम!
वे कह गये थे अक़्स से
परदे हटाना तुम!
नृत्य करता मोर है
कहते रहेंगे वो,
काम है उनका,
हमेशा का यही हर-रोज़
सर बाँधकर पैग़ाम यह,
सबको बताना तुम!
वे कह गये थे अक़्स से
परदे हटाना तुम!
सरताज़ हैं, सरकार हैं
हर ताज़ पर काबिज़,
हर रोज़ ढलती शामों की
क़ीमत चुकाना तुम!
वे कह गये थे अक़्स से
परदे हटाना तुम!
बोतलों को मुँह में भर
जो लिख रहे कविता,
फूस की रोटी जली
उनको खिलाना तुम!
वे कह गये थे अक़्स से
परदे हटाना तुम!
'जयशंकरों' की भीड़ में ग़ुम
सत्य का साहित्य
'प्रेम' का साहित्य है
उनको बताना तुम!
वे कह गये थे अक़्स से
परदे हटाना तुम!
मैं जा रहा हूँ, वक़्त से
नज़रे मिलाना तुम !
'एकलव्य'
( मेरा यह 'नवगीत' कथासम्राट आदरणीय मुंशी प्रेमचंद जी को समर्पित है। )