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सोमवार, 30 दिसंबर 2019

वैश्या कहीं की ! ( लघुकथा )

                                         



 वैश्या कहीं की !  ( लघुकथा )


"अरि ओ पहुनिया!"
""करम जली कहीं की!"
"कहाँ मर गई ?"
"पहिले खसम खा गई!"
"अब का हम सबको खायेगी!"
"भतार सीमा पर जान गँवा बैठा, न जाने कउने देश की खातिर!"
"अउरे छोड़ गया ई बवाल हम पर!"
कहती हुई रामबटोही देवी अपनी बहुरिया पहुनिया को दरवाज़े पर बैठे-बैठे चिल्लाती है। 

"का है ?" 
"काहे सुबहे-सुबहे जीना हराम करे पड़ी हो ?"
"चूल्हा जलाती होगी बेचारी!"
"तुमसे तो कउनो काम होता नहीं!"
"अउरे जो कर रहा है, उसका भी करना मुहाल करे रहती हो!"
अपना चिलम फूँकते हुए छगन महतो अपनी अधेड़ स्त्री को दो टूक सुनाते हैं। 

"हाय-हाय!"
"ई बुढ़वा को सभई दोष हमरे ही किरिया-चरित्तर में दिखता है!"
"अपने बहुरिया की छलकती हुई जवानी में कउनो खोट नाही दिखाई देता तुमका!"
"अरे आजकल ऊ झमना लोहार के लड़िकवा दिन-रात इहे दरवज्जे पर पड़ा रहत है!"
"और तो और, ई छम्मक-छल्लो ओकरी आवाज़ सुनकर दरवज्जे पर बिना घूँघट के मडराने लगती हैं!"
"वैश्या कहीं की!"      
बकबकाती हुई रामबटोही दरवाज़े पर खड़े बैलों को चारा खिलाने लगती है। तभी अचानक एक करुणभरी चीख़ दरवाज़े से होते हुए ओसार तक पहुँचती है। छगन महतो चीख़ सुनकर अपना चिलम छोड़, दौड़े-दौड़े दरवाज़े की तरफ़ आते हैं जहाँ बैलों ने रामबटोही को ज़मीन पर पटक दिया था, और वो बदहवास छितराई पड़ी थी।

"अरे ओ पहुनिया!"
"तनिक दौड़ जल्दी!"
"देख, तुम्हरी सास को बैल ने पटक दिया!" कहते हुए छगन महतो मंद-मंद मुस्कराते हुए ओसार में जाकर अपना चिलम फूँकने लगते हैं और अपना मुँह ओसार की छत की ओर कर धुँआ निकालते हुए मानो जैसे कह रहे हों "शठे शाठ्यम समाचरेत!"


           

लेखक: ध्रुव सिंह 'एकलव्य'   

7 टिप्‍पणियां:

Abhilasha ने कहा…

बेहतरीन लघुकथा

Anuradha chauhan ने कहा…

वाह बेहतरीन प्रस्तुति 👌👌👌

Anchal Pandey ने कहा…

रामबटोही तो अब और भड़क गयी। पहुनिया की अब खैर नही.....
बहुत खूब लिखा आपने आदरणीय सर। जब एक स्त्री के चरित्र पर कोई सवाल उठा दे तो ये बर्दाश्त के बाहर की बात हो जाती है और कोई ये सुनकर चुप बैठा रहे तो हम उसे महान नही मूर्ख कहेंगे और शायद बैल इस बात को बखूबी समझते थे। सादर प्रणाम आदरणीय सर 🙏

विश्वमोहन ने कहा…

एक साथ बहुत सारे चित्र खींच डाले आपने - विधवा का संताप, सास-बहू की चिक-चिक, स्त्री का शोषण, नारी के द्वारा ही नारी के चरित्र का उपहास और पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता की अग्नि में जलती स्त्रियों में दमकता पुरुष के दम्भ का दर्प! बधाई और आभार। कलम चलती रहे। शुभकामना!!!

Kamini Sinha ने कहा…

नारी के विभिन्न स्वरूपों का सुंदर चित्रण ,सादर नमन आपको

Jyoti khare ने कहा…

बहुत अच्छी कथा

Neeraj Kumar ने कहा…

बढ़ियाँ लघु कथा और कथा का अंत बहुत ही उपयुक्त !