नारी सशक्तिकरण! ( लघुकथा )
"रामकली!
"अरी ओ रामकली!"
"पकौड़े ला रही है या बना रही है!"
"ये निठल्ली मुई, एक काम भी समय से नहीं करती है!"
कहती हुई भावना अपनी नौकरानी रामकली पर खीझती है।
"छोड़ यार!"
"इधर मन लगा!"
"देख तू फिर से हार जायेगी!"
"नहीं तो!"
"चल, अपने ताश के पत्ते संभाल!"
कहती हुई भावना की सहेली शिखा ताश के पत्तों को बड़ी ही दक्षता से एक माहिर खिलाड़ी की तरह बाँटती है।
"मेरी अगली चाल सौ की!"
कहते हुए भावना सौ रुपये का नोट टेबल पर पड़े ताश के पत्तों पर दनाक से फेंक देती है।
"क्या यार, कर दी न छोटी बात!"
"अरे, इतने बड़े अफ़सर की बीबी है और तो और नारी सशक्तिकरण मंच की अध्यक्षा भी!"
"और टेबल पर बस सौ रुपये!"
"थोड़ा बड़ा दाँव लगा!"
कहती हुई भावना की सहेली पुष्पा अपने जूड़े को अपने हाथों से समेटने लगती है।
चाय की चुस्की लेते हुए शिखा,
"अरे यार, ये बता!"
"हमारी नारी सशक्तिकरण मंच वाली पार्टी कहाँ तक पहुँची ?"
तिरछी नज़रों से देखते हुए भावना की ओर प्रश्न दागती है।
"कह तो दिया है इनसे कि मल्होत्रा जी का रॉयल पैलेस देख लें और बुक कर दें, अगले रविवार के लिये!"
गहरी साँस लेते हुए भावना उसे तसल्ली देती है।
"अरे, मंच के लिये कोई धाँसू कविता तैयार की है कि नहीं ?"
"पिछली दफा तेरी वो भूखे-नंगों वाली कविता ने तो पूरे महफ़िल में कोहराम मचा दिया था!"
"और वो रेप वाली लघुकथा, उसने तो सबकी आँखों में आँसू ही ला दिये थे!"
शिखा, भावना को दो फुट चने के झाड़ पर चढ़ाते हुए नमक़ीन के कुछ दाने अपनी मुठ्ठी में भर लेती है। तभी रामकली पकौड़ों का प्लेट लेकर रसोईं से टेबल की ओर बढ़ती है।
"अब क्या होंगे तेरे ये पकौड़े ?"
"हमारी चाय तो कब की ठंडी हो गयी!"
"तुझसे एक काम भी ठीक से नहीं होता!"
"चल जा यहाँ से!"
भावना उसे खरी-खोटी सुनाते हुए जाने के लिये कहती है। परन्तु न जाने क्या सोचकर रामकली वहीं उसी टेबल के पास कुछ देर तक बुत बनी खड़ी रहती है।
"अब क्या है?"
"प्लेट रख, और जा यहाँ से!"
"क्यों खड़ी है मेरे सर पे ?"
सर पर हाथ रखते हुए भावना उसे फटकारती है।
"मालकिन, मेरे पोते का मुंडन है आज!"
"सौ रुपये मिल जाते तो!"
संकोच करते हुए रामकली कहती है।
"पैसे क्या तेरे बाप के घर से लाऊँ!"
"अगले महीने दूँगी!"
"काम करना है तो कर!"
"नहीं तो अपना हिसाब कर, और चलती बन!"
कहती हुई भावना, ग़ुस्से से उसे घूरती है। रामकली निरुत्तर-सी कुछ देर वहीं खड़ी रहती है और फिर अपना सर झुकाये वहाँ से चली जाती है।
लेखक : ध्रुव सिंह 'एकलव्य'
8 टिप्पणियां:
कभी-कभी सशक्त बनने की ढोंग करते हुए लोग वैचारिक निःशक्तता दिखाने लगते हैं । सटीक चित्रण।
"नारी सशक्तिकरण"की मुहीम हो,या और कोई,बस दिखावा ही कर पाते हैं यह लोग। सुंदर और सार्थक प्रस्तुति 👌👌
इसे कहते हैं दीपक तले अन्धेरा | रचनाकार में संवेदनहीनता उसके लेखन को व्यर्थ सिद्ध करती है | दोहरे चरित्र वाले कथित लेखकों को आइना दिखाती रचना |
इसे ही सच कहते हैं।
बहुत बढ़िया। समाज का असली चेहरा दिखाती लघुकथा।
...अरे आदरणीय सर यूँ परदा ना उठाइए समाज की हकीकत से। यूँ ढोंग का चोला उतरने लगा तो सारे हरिश्चन्द्र डाकू नज़र आयेंगे।
बहुत खूब लिखा आपने।दोहरे चरित्र की हकीकत बयां करती सार्थक,सटीक लघुकथा।
सादर प्रणाम 🙏 सुप्रभात।
सशक्तिकण के नाम पर दिखावा , सत्य,सटीक सार्थक प्रस्तुति
बस दोहरे व्यक्तित्व ही तो नजर आते हैं ,चंद शब्दों में बड़ी बात ,सादर नमन आपको
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