आपका स्वागत है।

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

दो लघुकथाएँ

छुटकारा ( लघुकथा )


"बोल-बोल रानी! कितना पानी ?
 नदिया सूखी, भागी नानी।" 
कहते हुए ननुआ मदारी अपने बंदर और बंदरिया को अपनी पीठ के चारों ओर घुमाता हुआ, "क़दरदान !  मेहरबान! अपनी झोली खोलकर पैसा दीजिए! भगवान के नाम पर, इन मासूम खिलाड़ी बंदर-बंदरिया की रोज़ी-रोटी के वास्ते! दीजिए! दीजिए!
साहेबान!
निग़हबान!
चलो भईया! आज का खेल यहीं ख़त्म!'' कहते हुए ननुआ मदारी अपना करामाती थैला समेटता है और घर की ओर अपने बंदर-बंदरिया को लेकर चल पड़ता है। घर के दरवाज़े पर पहुँचते ही उसको उसकी माँ की दर्दभरी खाँसी सुनायी देती है और वह जाकर उसके सिरहाने यह कहते हुए बैठ जाता है कि,

''माँ कल थोड़े पैसे और हो जायें तो तुझे अच्छे डॉक्टर को दिखाऊँगा।"  
इधर ननुआ की बंदरिया भी कुछ दिनों से बीमार चल रही थी जिसके सर को उसका बंदर अपनी गोद में रखकर सहला रहा था और ननुआ की अपनी माँ से वार्तालाप भी बड़े ध्यान से सुन रहा था। दूसरे दिन ननुआ यह जानते हुए कि उसकी बंदरिया बहुत बीमार है, दोनों को लेकर खेल दिखाने निकल गया। 
साहेबान!
क़दरदान! 
अब देखिये, मेरा बंदर अपनी बंदरिया को गोली से उड़ा देगा !
''ठाँय-ठाँय !"
बंदरिया ज़मीन पर गिर पड़ी। बंदर ने उसे कफ़न ओढ़ाया । साहेबान!
क़दरदान!
"अब देखिए हमारा बंदर अपनी बंदरिया को कैसे जीवित करता है।''

ननुआ का बंदर अपनी बंदरिया को उठाने के लिये झिंझोड़ने लगा। बंदरिया दोबारा नहीं उठी। संभवतः उसे अपने रोज़-रोज़ के झूठ-मूठ के मरने से सच में छुटकारा मिल चुका था। बंदर वहीं अपनी बंदरिया की लाश के पास बैठा-बैठा आसमान की ओर निःशब्द, निर्निमेष देख रहा था मानो वह अपनी बंदरिया की आत्मा को महसूसकर  मन ही मन कह रहा हो-
"चलो अच्छा हुआ, तुझे कम से कम इस नरक से छुटकारा तो मिला!''



ठेठ पाती ( लघुकथा ) 

"सुनो!
सुनो!
सुनो!"

''सभी गाँव वालों ध्यान से सुनो!"
"विधायक जी ने गाँव की महिलाओं और लड़कियों हेतु एक 'चिट्ठी लिखो प्रतियोगिता' का आयोजन किया है।" "जीतने वाली प्रतिभागी को हमारे विधायक जी स्वयं पंद्रह अगस्त को एक हज़ार रुपये की पुरस्कार राशि से पुरस्कृत करेंगे।"
"सुनो!
सुनो!
सुनो!"
कहते हुए नेताजी का संदेशवाहक अपनी टुटपुँजिया साइकिल अपने बलपूर्वक खींचता हुआ गाँव के बाहर निकल गया। 
"अरे ओ परवतिया!"
"सुनती है!"
"देख गाँव में कउनो खेला होने वाला है।"
"तुम भी काहे नहीं चली जाती!"
कहते हुए परवतिया के ससुर अपना ख़ानदानी हुक़्क़ा गुड़गुड़ाने लगते हैं। 
"ठीक है!"
"सुन लिया!"
"मैं कल पंचायत-भवन में चली जाऊँगी अपना बोरिया-बिस्तर लेकर।"
कहती हुई परवतिया बैलों की नाद में भूसा डालने लगती है। 
दूसरी सुबह परवतिया गाँव के पंचायत-भवन पहुँचती है जहाँ और बाक़ी महिलाएँ आयोजनकर्मियों द्वारा दिये गये काग़ज़ पर कुछ लिखने में व्यस्त थीं। परवतिया कुछ समझ पाती उसके पहले ही एक कर्मी ने उसके हाथों में एक सादा काग़ज़ और क़लम पकड़ाते हुए दूसरे कोने में बैठ जाने का इशारा करता है और कहता है कि-
''देश के विकास के नाम एक पाती लिखो!"
परवतिया कुछ सोचती हुई पंचायत-भवन के एक कोने में जा बैठती है और अपनी टूटी-फूटी भाषा में कुछ लिखने लगती है। 
"पणाम! हम कहे रहे, इहाँ सबहि ठीक बा" 
हऊ केदार राम के गदेलवा विकशवा, मुआं 
कबही से बेमार रहा। कलिया बता रही थी कि, ऊ मुआं झोलाछाप वैद्यवा के कारन विकशवा का तबियत ढेर ख़राब हो गवा रहा!"
"तबही नये वैद के यहाँ ओकरी माई ले गयी रहिन!"
"आज भोरहरी ओकर मृत्यु हो गयी रही!''
"सुनने में आ रहा था कि ई नया वैद दवाई का तनिक बेसी ख़ुराक़ दे दिआ रहा!"
"बाक़ी सबहि कुशल मंगल! हमरी बकरिया छबीली, कलही से पानी नाही गटक रही है!
"बाक़ी खबर आने पर पता लगेगा!"

"तुम्हरे चरनों की धूल!"
परवतिया 

ध्रुव सिंह 'एकलव्य'  


7 टिप्‍पणियां:

Ravindra Singh Yadav ने कहा…


नमस्ते,

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरूवार 12 दिसंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

1609...होश नहीं तुझको तू कौन दिशा से आया...

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह

Anita Laguri "Anu" ने कहा…

.. वाह ध्रुव जी लघु कथा लिखने में आपका जवाब नहीं
.. कहानी में प्रयोग की गई गँवई ठेठ भाषा कहानी में रस पैदा कर देती है ..और साधारण से लगने वाले भाव व्यवहार में रोचकता पैदा हो जाती है ऐसे ही लिखते रहा कीजिए आपको बहुत-बहुत ढेर सारी शुभकामनाएं और बधाई।

Anita Laguri "Anu" ने कहा…

जी नमस्ते,

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (13 -12-2019 ) को " प्याज बिना स्वाद कहां रे ! "(चर्चा अंक-3548) पर भी होगी

चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का

महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।

जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।

आप भी सादर आमंत्रित है 
….
अनीता लागुरी"अनु"

Sudha Devrani ने कहा…

बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी लघुकथाएं जो गाँव की परिस्थितियों को उजागर कर रही हैं।

रेणु ने कहा…

प्रिय ध्रुव , बहुत ही भावपूर्ण लघुकथाएं हैं दोनों | पहली मार्मिकता से भरपूर कथा में जीवन के जोड़ तोड़ में फंसे मदारी और बंदर- बंदरिया की विवशता मन को छू जाती है |मदारी के इशारों पर नाचते बंदर का बंदरिया की मौत पर निशब्द होना इस बात का प्रतीक है -जानवर भी भावनाओं से रिक्त नहीं होते | उनके भीतर जीवधारियों सी सब भावनाएं विद्यमान हैं ||और ठेठ पाती तो ठेठ देहाती है | एक आम महिला की दुनिया पति से शुरू और उसी पर खत्म होती है |वह उसी से हर बात बांटना चाहती है भले झोलाछाप वैद्य जी की गलत दवा से कोई बीमार पड़ जाए या मर जाए , चाहे बकरी छबीली कल से पानी ना गटके या फिर कोई और बात हो | पर आपने ये नहीं लिखा कि इस शानदार मौलिक लेखन के लिए हमारी प्यारी परवतिया को कोई पुरस्कार मिला या नहीं ? सुंदर कथा लेखन के लिए मेरी सस्नेह शुभकामनाएँ |

Pankaj Trivedi ने कहा…

रेणु जी, इस मंच के अच्छे रचनाकार को मेरी ओर से अपनी विश्वगाथा पत्रिका के लिए रचनाएं भेजने का निमंत्रण दिजिए।
पंकज त्रिवेदी
संपादक : विश्वगाथा

vishwagatha@gmail.com