उठा-पटक
खेल रहे थे राम-राज्य का
गली-गली हम खेल,
आओ-आओ, मिलकर खेलें
पकड़ नब्ज़ की रेल।
मौसी तू तो कानी कुतिया
खाना चाहे भेल
मौसा डाली लटक रहे हैं,
उचक-उचक कर ठेल।
मौसी कहती, जुगत लगा रे
कैसे पसरे खेल !
धमा-चौकड़ी बुआ मचाती
कहती लेखक मेल।
मिल-जुलकर सबने जलाई
वही धर्म की आग
बुआ-मौसी, चाचा-चाची
बैठे जिसके पास
जिसे देखकर 'नागा' की भी
चकिया रही उदास।
दी फेंककर मारा बटुआ
उस राही के सर,
पागल-पथिक हुआ बेचारा,
भागा अपने घर।
खेल-खेल में लिपट-लेखनी,
वही धर्म की आग
धर्म-परायण बन बैठे सब
हिन्दी रही उदास।
छपने लगे ख़बर मूरख के
पहना साहित्य के चोल,
गोरिल्ला ने समझ चोल की
खोली उनकी पोल।
इसी बात पर बूढ़ी-बिल्ली
तमग़ा लेकर आई,
झाड़-पौंछकर उल्लू बैठा
देने लगा दुहाई।
मौक़ा पाकर मौसी ने
ऐसा कोहराम मचाया
खेत रहे 'महाप्राण' निलय के
पितरों ने शीश नवाया।
इंद्र-रवींद्र बचा रहे थे
भाग-भागकर प्राण,
वेणु ने रण-शंख बजाया
ठोक-ठोक कर ताल।
ब्लॉग-जगत की माया में
यह कैसी माया छायी
सिर से पैर तलक हर कोई
बनने लगा निमाई।
एक मुख अल्लाह है बैठा
दूजे मुख से राम,
सत्य नाम साहित्य रह गया
हो गया काम-तमाम !
एक मुख अल्लाह है बैठा
दूजे मुख से राम,
सत्य नाम साहित्य रह गया
हो गया काम-तमाम !
एक धड़ा साहित्य-समाज का
रचता कैसा खेल,
द्वितीय श्रेणी साहित्य है बैठा,
प्रथम धर्म का ठेल !
'एकलव्य'
16 टिप्पणियां:
वाह !!!
ब्लॉग जगत में चलने लगी जब व्यंग्य की तलवारें
धर्म के बाद भाषा की बारी भी आएगी ही !
एकलव्य जी, मौन रहें या मुँह खोलें हम
बात यही हर बार विचारी जाएगी ही !
सोचा था हमने ये दुनिया है अलग,
ये है जमाने के चलन से बेअसर !
पर यहाँ भी वही थू थू, वही छीः छीः
और वही उट्ठा पटक !!!
ब्लॉग कर दें बंद या नेत्रों को अपने बंद कर लें,
बात कुछ मन को यही अब जँच रही है।
कब कहाँ से कौन टँगड़ी खींच लेगा,कौन जाने ?
लेखनी तलवार से कम कब रही है ?
हम कोई सार्थक चिंतन कर सकते थें।
आखिर पढ़लिख कर भी ऐसी वैमनस्यता क्यों हैं ? खैर अच्छा है कि मैं अनपढ़ ही सही ।
हमारे संत महात्माओं ने कहा है कि
" ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये |
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए || "
और प्राइमरी कक्षा से हम इसे पढ़ते आ रहे हैं,परंतु अमल नहीं कर पाते हैं। सम्भवतः गुरुदेव इसीलिये मौन रहने पर बल देते हैं। वे कहते थें कि जप भी करों तो श्वास-प्रश्वास के माध्यम से। अब समझ पा रहा हूँ , इसका रहस्य। यह कुतर्क से हमें परे रखता है और हमारी चिंतनशक्ति को सार्थक दिशा प्रदान करता है, मैं पिछले कुछ ही दिनों से इसका अभ्यास कर रहा हूँ, ताकि वाणी पर संयम प्राप्त कर सकूँ और इसके प्रभाव की अनुभूति भी कुछ-कुछ कर पा रहा हूँ।
अतः सभी से आग्रह यह है कि आपस में किसी भी प्रकार के कटुतापूर्ण प्रकरण का पटाक्षेप कर लिया जाए । छोटे का सम्मान "क्षमा मांगने" में है और बड़े का "क्षमा करने" में..
जब सबकुछ नश्वर है, तो हमारा अहंकार शाश्वत क्यों, आपस में यह वैमनस्यता क्यों ?
-व्याकुल पथिक
सच कहूँ मीना दी कि ब्लॉग पर आकर ही आभासीय दुनिया से जुड़ने के कारण मुझे असीम वेदना प्राप्त हुई और पुनः एकांत चिंतन से गुरु के ज्ञान का स्मरण हो आया और अब मैं आनंद की ओर बढ़ रहा हूंँ।
यदि मेरी टिप्पणी पसंद नहीं आयी हो, तो मैं भी आप सभी से क्षमा मांगता हूँ।
प्रिय ध्रुव , अपने ऊपर हँसना व्यंग विधा का सुन्दरतम रूप है, क्योंकि व्यक्ति का अपने ऊपर हँसना उसकी उद्दात मानसिकता का परिचायक है | पर जब यही व्यंग उच्छश्रृंखलता वश दूसरों पर लक्ष्य बांधकर किया जाता है तो वह कहीं ना कहीं उपहासमात्र बनकर रह जाता है और अपनी महिमा गंवा बैठता है | आपकी सुगठित और सुंदर शैली में लिखी गयी रचना में ऐसा ही आभास हुआ | जिसमें छुपा तंज वाकईधारदार है पर निजता पर प्रहार से जो बहुत मर्मान्तक और वेदनापूर्ण भी हो गया है | विद्वानों के वार्तालाप से सद्भावना का अमृत निकलना चाहिए ना कि वैमनस्य का विष | ध्रुव सिंह एकलव्य साहित्य के एक उदीयमान सितारे का नाम है जिसकी यशस्वी कलम से इस तरह का व्यंग शोभायमान नहीं होता | मर्यादित आचरण से रचनाकार की गरिमा बढती है आशा है आप सार्थक सृजन पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए साहित्यके भंडार को भरने में अपनी ऊर्जा और सृजन क्षमता का सही उपयोग करेंगे और अपनी रचनात्मकत़ा को नए और ऊँचें आयाम देंगे तभी आप बाबा नागर्जुन के सही शिष्य कहलाने के अधिकारी बनेंगे | बाबा की पुण्य स्मृति को कोटि नमन |
सुनो ! कवि , धर्म तुम्हारा बहुत बड़ा
कभी कुटिल , कपट व्यवहार ना करना
निज तुष्टि की खातिर बिन सोचे
मर्मान्तक प्रहार ना करना !
तुम संवाहक सद्भावों के ,
करुणा के अमिट प्रभावों के ;
बुद्धिज्ञान के दर्प,गर्व में
फूल व्यर्थ की रार ना करना !
कवि , धर्म तुम्हारा बहुत बड़ा !!
सदियों रहेगी गूंज तुम्हारी वाणी की
सौगंध तुम्हें कविधर्म , माँ वीणापाणी की ;
फूल बनाना शब्दों को
बनाकर खंज़र वार ना करना
सुनो कवि ! धर्म तुम्हारा बड़ा !
फिर प्रभु ने सोचा ये इतनी चीज आये ना आये लेकिन इनको सद्द्बुद्धि जरूर आएगी अतएव प्रभु स्वयं प्रकट हुए अपनी तीक्ष्ण टिप्पणी लेकर।
अब इन शब्दों को पढ़कर मुझे यही लग रहा है कि आपमें और उनमें कोई फर्क नहीं रहा। कौनसे प्रभु का अवतार हैं आप, ये बताने की कृपा करेंगे ? मैं निष्पक्ष हूँ और किसी का पक्ष लेकर ये बात नहीं कह रही परंतु अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने से पहले यह वाक्य जरूर बोर्ड पर लिख देती हूँ -
"विद्या विनयेन शोभते"
रोहितासजी,एकलव्य जी, आप लोगों की रचनाएँ पढ़कर आपकी प्रतिभा की कायल होती हूँ परंतु यह सब जो लिखा जा रहा है ये अक्खड़ता नहीं, अकड़ और घमंड की श्रेणी में आएगा।
बहुत से स्नेह के साथ, आपकी बड़ी बहन का सा हक रखते हुए ये लिख रही हूँ।
जब 'मनोरोगी' शब्द का उपयोग एक लेखक के लिए किया जाता है तब बहुत दुःख होता है। परंतु हमारे संस्कार सिखाते हैं कि उम्र और ज्ञान में बड़े लोगों से जिरह नहीं करनी। समय आने पर उन्हें अपनी गलती का अहसास हो ही जाता है। हम लोग लेखनी का उपयोग करके स्नेह, प्रेम और मानवता के फूल खिलानेवाले लोग हैं, फिर क्यों काँटे बो रहे हैं ? कोई किसी धर्म से संबंधित तीज त्योहारों का महत्त्व समझा रहा है तो समझाने दो। तुम्हें नहीं मजा आ रहा तो किसी और सोशल साइट पर जाओ। तमाम पठनीय सामग्री से इंटरनेट भरा पड़ा है। लड़ना क्यों ? नीर क्षीर विवेक से जो काम लेता है वही मानस का हंस होता है ना ?
मेरी टिप्पणी हटाने का मतलब कायरता से न निकाला जाए। कारण बस ये था कि उसका मतलब गलत निकल पड़ता,... जैसा मीना जी समझ गए।
खैर
आप जो रचना में बोले है वही हम टिप्पणी में बोले थे... खुदा खैर करे।
आपका कटाक्ष मस्त हैं लेकिन
कटाक्ष में व्यक्तिगतता नहीं आनी चाहिए।
खैर नाम डाल ही दिए हैं तो उनका बिगाड़ रूप क्यों।
जिसने मुझे मनोरोगी बोला उसको मैंने कितना सम्मान दिया है,
और बाकी लोग कितने चुप थे वहां जाके देख लो।
रविन्द्र जी भी "जानबूझ कर कहा मनोरोगी" वाले उनके कथन पर टिप्पणी देते हैं कि हममें आपके इस कथन पर आपके प्रति और ज्यादा श्रद्धा उमड़ रही है।
वाह... कमाल ही ना हो गया ये, पितामह जैसी हस्ती ही बना दिया किसी को।
रही महत्त्व समझाने की बात
आप बताएं कभी इनकी कलम ने ईद का महत्व बताया है?
कभी इनकी कलम ने रमजान का महत्व बताया है?
कभी इन लोगों ने लोहड़ी का महत्व बताया है या महावीर जंयन्ति
या बौद्ध जंयन्ति का महत्व बताया है??
या किसी अन्य धर्म के कोई भी त्योहार का महत्व आपने पढ़ा हो इनकी कलम से??
मेरा ये मानना है कि ब्लॉग पर वही लोग हैं जो महत्व को पहले से जानते हैं... या जो नहीं जानते उनको 1-2 दिन में समझा दिजीये ना, जो समझाना हो। रोज रोज ही क्या ये ब्लॉग को धार्मिक क्लासेज बना रखी थी।
मानता हूं हमारे जितने भी त्योहार हैं सब धर्म के लोग मिल जुलकर के मनाते हैं। इन त्योहारों में साम्प्रदायिक सद्भावना होती है मगर क्या हम इनके बारे में लिखते वक्त साम्प्रदायिक सद्भावना का ख्याल रखते हैं, क्या कोई सम्बंधित त्योहार के अलावा कोई दूसरे धर्म का बन्दा इसे पढ़े तो उसको भी वह त्योहार या पर्व अपना सा लगने लगता है?
नहीं,
हम किसी एक पक्ष को खिंचते जाते हैं और वो त्योहार साम्प्रदायिक सद्भावना का होते हुवे भी हमारे लेखन में साम्प्रदायिक सद्भावना का नहीं रहता।
साहित्यकार के लिए और बहुत से अछूते विषय होते हैं जिस पर लिखा जाना चाहिए।
मजे के लिए मैं पढ़ता नहीं।
"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।" -दुष्यंत जी
हम किसी को सिखानेवाले कौन होते हैं कि वो कौनसे विषय पर लिखे। आप मजे के लिए नहीं पढ़ते, अच्छा है। मेरी टिप्पणी में मजे का अर्थ मनोरंजन नहीं था। अर्थ यही था कि जो पढ़ना हमें अच्छा लगे, हमारी बौद्धिक प्यास को संतृप्त करे। खैर !!!
अपनी बात को यहीं विराम देती हूँ। संवाद विसंवाद में बदलने लगे तो चुप हो जाना चाहिए।
भाई जी , बस इतना कहूँगा कि मीना दी वरिष्ठ हैं, वे और रेणु दी मेरी दृष्टि में औरों की तरह बिल्कुल नहीं हैं।
और उन्हें भी मनोरोगी शब्द पर आपत्ति है।
परंतु धार्मिक पर्व पर आपकी टिप्पणी उन्हें नहीं पसंद है।
अतः मैं बस इतना अनुरोध करूँगा कि मीना दी की बातों को अन्यथा न लें ।
Ok भाई जी
मैं आगे से ध्यान रखूंगा
और उनको ठेस पहुंचाई इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।
धन्यवाद मित्र ,
यह मेरा व्यक्तिगत अनुरोध था, आपने स्वीकार किया, मुझे खुशी मिली।
Nice Article.
Current Affairs
Life in a village
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