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सोमवार, 7 अगस्त 2017

''बेग़ैरत''

उस मील के पत्थर को 
सोचता चला जाता हूँ 
इस उम्र की दहलीज़ पर 
आकर फ़िसल जाता हूँ 

बस लिखता चला जाता हूँ ..... 

बस्ती हुई थी रौशन 
जब गुज़रे थे, इन गलियों से होकर 
कितना बेग़ैरत था, मैं 
अपनी ही खुदगर्ज़ी में   
सोचकर आज़ 
आँसू  बहाता हूँ 

बस लिखता चला जाता हूँ......  

सरेआम किया नंगा 
ख़्याल नहीं था 
इंसानियत का हमें 
ख़ुद पे बन आई आज़ 
धर्म इंसानियत 
बताता हूँ 

बस लिखता चला जाता हूँ.......  

क़त्ल मैंने भी किए कई 
बड़ा बेरहम होकर 
चौराहों पे 
क़त्ल हुआ हूँ आज़ 
बेरहम बताता हूँ 

बस लिखता चला जाता हूँ........ 

नाचता था 
ईद -दिवाली समझकर 
दूसरों की मैय्यत में 
मेरी मैय्यत में 
मत नाचो ! ख़ुदग़र्ज़ों 
मौक़ा परस्त 
बताता हूँ 

बस लिखता चला जाता हूँ .......  

दर्द हुआ दुनियावालों 
ख़ता है मेरी 
दर्द हुआ है मुझको 
नासूर दिखाता हूँ 

इस उम्र की दहलीज़ पर 
आकर फ़िसल जाता हूँ 

बस लिखता चला जाता हूँ ........ 

''एकलव्य'' 


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