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शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

"कहीं मेरे कफ़न की चमक"

कुछ जलाये गए ,कुछ बुझाये गए
कुछ काटे गए ,कुछ दफ़नाये गए
मुझको मुक़्क़म्मल जमीं न मिली
मेरे अधूरे से नाम मिटाए गए 


एक वक़्त था ! मेरा नाम शुमार हुआ करता था 

चंद घड़ी के लिये ही सही ,  ख़ास -ओ -आम हुआ करता था 
रातों -दिन महफ़ील जमती थी ,मेरे महलों की चौखट पर
चारों पहर जलसे होते थे ,मेरी नुमाइंदगी में
करते थे लोग सज़दे मेरी सादग़ी में 


एक वक़्त आज है ! अकेला क़ब्रिस्तान में पड़ा -पड़ा

ना जाने किसका इंतज़ार करता रहता हूँ


कुछ परिंदे बैठें हैं मेरी क़ब्र की दिवार पर

पत्थर पे लिखी स्याही ,कुछ मिट सी गई है
मेरे सीने पर रखे वो सफ़ेद से संगमरमर
घिस से गयें हैं 


हवाओं के चलनें से उड़े सूखे पत्ते ,जिन्हें ढ़कने को आतुर हैं

धूल भरीं आंधियां ,जैसे हुक़्म-परस्त हो गयीं हों
मेरे  सीनें पर जमती जा रहीं हैं 


फ़िर भी आज़, एक फ़िक्र सताती है मुझे

कहीं मेरे कपड़े मैले ना हों जायें
कहीं मेरी रुह ,दाग़दार ना हो जाए
कहीं मेरे कफ़न की चमक फीक़ी ना पड़ जाए



   "एकलव्य"  



               

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