ई ससुर, मुद्दा क्या है?
मुद्दा ये नहीं,
कि मुद्दा क्या है!
मुद्दों पर चलने वाला,
अपना ही कारवां है।
बनते हैं मुद्दे,
कारवां में भी
मुद्दे पर मुद्दा,
बनाते हुए।
तफ़्तीश करना मुद्दों की
मुद्दा बड़ा अहम् है
इस कारगुज़ारी में,
मिल गये हैं बंदर
इसी मुद्दे की
चारों बाँह पकड़कर।
ख़तरे में है मुद्दा
एक सौ पैंतीस करोड़
मुद्दों के लिये,
ख़तरे में हैं जिनके मुद्दे
अभी केवल कुछ वर्षों से।
मुद्दों के भी
कुछ और मुद्दे हैं
और हैं मुद्दों को बचाने वाले
बचे हुए मुद्दों पर,
लाठी चलाने वाले मुद्दे।
आवाम के वे सारे मुद्दे
कौन अपने हैं?
और कौन हैं पराये?
कुछ मुद्दे तय करते हैं
जो एक सौ पैंतीस करोड़ के
मुद्दों से, मुद्दों पर बैठे हैं!
साहब! ये मुद्दा क्या है?
तनिक बताईए हमें!
इन मुद्दों की तासीर क्या है?
भारत एक ख़ोज!
अथवा ख़ाली एक मौज़!
सोज़ का विषय है!
ई ससुर, मुद्दा क्या है?
अरे साहब!
मुद्दों की 'क्रोनोलॉजी' समझिए!
रेडीमेड कवि संगोष्ठी!
हज़रतगंज के कवि मंच पर
ख़ूब लगी थी भीड़,
कुछ बैठे अति काने-कौवे
बाक़ी पीर-फ़क़ीर।
कलुआ भागा, दौड़ा-दौड़ा
कक्का के संग आया,
अपनी बारी में डंटकर
ऐसा कोहराम मचाया।
पास वहीं मंचित बैठे
पुरखे फ़ौरन घबराये,
कलुआ की तीखी वाणी सुन
भर, पात-पात मुरझाये।
बोले कक्का,
रहने दे कलुआ!
तू काहे ऊधम मचाये!
जानती है जनता अपनी
फिर काहे व्यंग्य गँवाये!
उधर देख अब संचालक भी
तुझसे हैं खुन्नश खाये।
क्षणभर में नीचे आ जा तू
क्यों भद्द अपनी पिटवाये।
सुनकर बातें तब कक्का की
कलुआ थोड़ा तुनकाया
ठहरो कक्का,धोती पकड़ो!
कुछ मिनटों में मैं आया।
ऊधम मचाता कलुआ भी
अब थोड़ा ज़ोश में आया
तेरी-मेरी अब ख़ैर नहीं,
कहता-कहता पगलाया!
उधर संघ के सानी सब
अब लुटिया डूबी जानें,
करते-करते कानाफूंसी
बस अपना बिस्तर बाँधे!
कुछ उनमें भी थे पगे हुए,
अब कलुआ रास न आया
क्षण में मंच बना था रण
मन देख-देख घबराया!
एक ने फेंका जूता अपना
कलुआ पर निश्चित लक्षित कर
पर भाग्य बड़ा ही खोटा था
जूता जो गिरा कक्का के सर!
चीख़े कक्का, निज प्राण गया
जीते-जी कलुआ मार गया
तुझको क्या चुल्ल मची इतनी
फ़ोकट में जीने का सार गया!
चीख़ें सुन कलुआ,कक्का की
क्षण, अपना आपा खो बैठा
प्रतिशोध में अपने कक्का के
ध्वनि-डंडी से सब धो बैठा!
विक्रालरूप देख, कलुआ का
रस वीर कवि महोदय बोले,
मैं वीर हूँ केवल शब्दों का
धीरे-धीरे कहते डोले!
प्रेमरसिक कविवर बोले,
मन भाँप श्याम, मन को तोले
प्रियवर तुम तो सानी हो
तुम केवल हिंदुस्तानी हो!
मैं तो ठहरा, एक प्रेम-पथिक
शत्रु ना हूँ मैं, प्रेम-अडिग
डग भरता सूनी गलियों में,
न गाता हूँ न रोता हूँ
पिछला बसंत है स्मरण मुझे
कलियाँ बसंत की आयीं थीं
अब सूखी टहनी शेष बचीं
बस रहतीं हैं परछाईं-सी!
छोड़ो मुझको, पकड़ो उसको!
है व्यंग्य कवि, तोड़ो उसको!
प्रभु क्षमा करो अब तो मुझको!
न किसी मंच पर जाऊँगा
जूता क्या, चप्पल खेत रहे
नित्-नंगे पैर ही आऊँगा!
व्यंग्यों के बाणों-संग बैठा
कुछ तोंद फुला, ऐंठा-ऐंठा,
तरकश शब्दों के साथ लिये
अर्जुन-सा वीर बना बैठा!
भान मिज़ाज़ कलुआ-कक्का
तोते-सी शक्ल बना बैठा
बस निकट जानकर कलुआ को
हलक़ में प्राण बसा बैठा!
हक़लाकर बोला, भाई सुन!
हल्दी में अब चंदन के गुण
मैं तो बैठा था अलग-थलग
अब क्या पीसेगा, गेहूँ में घुन!
मैं तो बेचारा, कविवर ही था
मंचों पर मारा जोकर था
उसने दिखलाये स्वप्न बड़े
रख, ज्ञानपीठ का दम्भ भरे!
उसने बोला, तू अकेला है
कुछ बोले, कवि झमेला है
बिन टोली ख़ाली, कुछ भी नहीं
दुनिया भीड़ का मेला है!
एकांकी मंच पर कुछ भी नहीं
लेख़क स्वतंत्र तू आयेगा
कर शोर-सुपारिश अतिआवश्यक
वाणी आकाश की पायेगा!
मैं ख़ाली लालच में आया
रुतबे का मद नज़र छाया
बस वार्षिक शुल्क ज़मा कर दी
टोली की चोली सिलवाया!
अब जाता हूँ कवि-मंचों पर
साहित्यसमाज के ख़र्चों पर
अब लंबी पूँछ, बड़ी अपनी
साहित्यलेखनी कंधों पर!
बोला, उसने जो बुलवाया
शुभ साँझ-सवेरे मंचों से
ज्ञात मुझे साहित्य नहीं
बस राजनीति है धंधों से!
कहता हूँ मुझको माफ़ करो
सब किया-कराया साफ़ करो!
सरपट दौड़ा मैं जाऊँगा
उस कुनबे में छिप जाऊँगा
उस धागे वाली 'रिमझिम' को
दिन में फिर चार घुमाऊँगा!
सुन विनती कवि की दौड़े कक्का
जो मन से थे हक्का-बक्का
बोले कलुआ, अब जाने दे!
चल छोड़ छड़ी, पछताने दे!
तू कवि है केवल, भान रहे
लेख़क की सुचिता, मान रहे
कवि के पथ का तू गौरव है
साहित्य में बाक़ी जान रहे!
ख़ुद को ऊँचा कर, मंच नहीं
बस रच साहित्य, प्रपंच नहीं
मानस का तू राजहंस
रख मानवता अवशेष नहीं!
सुन गीता का, वह सार-शब्द
कलुआ लज्जित-सा बार-बार
जोड़ा कर अपने कक्का के
था पश्चाताप से तार-तार!
मिल गृह-प्रस्थान किये दोनों
विकल्प-रहित, संकल्प-सहित
साहित्य प्रेम से चलता है
हो द्वेष-रहित, कर्तव्य-सहित!
'एकलव्य'