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सोमवार, 23 सितंबर 2019

धारावाहिक.... ( उपन्यास ) खण्ड -१

धारावाहिक...........( उपन्यास ) खण्ड -१
अपने सम्मानित पाठकों के लम्बे इंतज़ार और माँग को देखते हुए, मैं अपने नये उपन्यास "धारावाहिक" को कई चरणों में आप सभी के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। पाठकों की रुचि के आधार पर मैं इसे थोबड़े की क़िताब पर निरंतर अंतराल पर आगे बढ़ाता रहूँगा। सादर 'एकलव्य'






१. ड्रामा शुरु .... 


                            अरे ओ फुलझड़िया ! कहाँ मर गई ? ज़ल्दी आ ! धारावाहिक शुरु होने वाला है। अपनी इकलौती बहुरिया को चिल्लाती हुई जमनाबाई ! अरे किशनवा  को भी ज़रा आवाज़ लगा दे न जाने मुआ कब से पखाने में कीर्तन कर रहा है ! 
आई माँ जी ,फुलझड़िया जमनाबाई को आश्वस्त करती हुई दाल में लालमिर्च और लहसुन जीरे का तड़का लगाती है जिसकी ज़हरीली महक़ से घर का गेट खोल रहे वक़ील साहब अपने पैंसठ की उम्र पार करने का संदेश मुहल्ले वालों को देने लगते हैं ! " का ससुर ई रोज़-रोज़ इतना मिरच खाने में ई सबहन तो हमरी जान लेके ही मानेंगे। कहते हुए घर के गेट को कुंडी लगाते हैं जहाँ उनका कुत्ता झुमरु उन्हें देखते ही पूँछ हिलाकर चार कलैया मारता है और जाकर वक़ील साहब के क़दमों में साष्टांग लेटने लगता है। 

                            क्यूँ जी ! आज कचहरी से बड़ा ज़ल्दी आ गए।  दिनभर खलिहर बैठे रहे का ? जमनाबाई वक़ील साहब पुरुषोत्तम महतो पर थोड़ा व्यंग्य कसती है। क्यूँ नहीं ! सारा कचहरी का काम-धाम तुम्ही तो निबटाती हो ! हम तो केवल वहाँ माखी मारने जाते हैं ! पुरुषोत्तम महतो जमनाबाई को प्रतिउत्तर देते हैं। जवाब भारी पड़ता देख जमनाबाई फट से बात पलटी है। चलो अच्छा ही हुआ ज़ल्दी आ गए ! कचहरी में बेक़ार की मक्खियाँ उड़ाने से अच्छा; कुछ काम की चीज देख लोगे ! कहती हुई जमनाबाई अपनी निग़ाहें टीवी स्क्रीन की तरफ़ जमा लेती है। 

                           उधर फुलझड़ी भी ज़ल्दी-ज़ल्दी दाल में तड़का लगाकर टीवी वाले मेहमानख़ाने में आ धमकती है। अरे माँ जी ! धारावाहिक शुरु हो गया क्या ? जबकि मैं तो अभी आ ही रही थी ! नहीं तो ! फुलझड़ी अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए जमनाबाई को घूरकर देखती है ! 
हाँ... ! हाँ... ! टीवी वाले तो तेरे बाप के तामीरदार जो ठहरे कि तू डेढ़ घंटा सजेगी-सँवरेगी और वे तेरे  इंतज़ार में बैठकर टीवी पर प्याज़ छीलेंगे ! क्यूँ ! जमनाबाई फुलझड़ी को तंज़ कसती हुई। 


                         तभी पखाने से गमछे में हाथ-मुँह पौंछता हुआ पुरुषोत्तम महतो का बड़ा बेटा झींगुर मेहमानख़ाने में प्रवेश करता है। क्यूँ रे ! पखाने में भरतमिलाप कर रहा था क्या ? इतनी ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगा रही थी तुझे ! कान में क्या ठेपी डालकर बैठा था ? जमनाबाई डाँटती हुई। अब क्या बतायें ! झींगुर क़ानूनशास्त्र  में डी.लिट. जो कर रहा है। सुबह विश्वविद्यालय निकलना होता है सो न्यूज़ पेपर पढ़ने का टाईम कहाँ है उसके पास। विश्वविद्यालय से आने के बाद जो कुछ थोड़ा-बहुत समय बचता है उसमें भी उसकी परमप्रतापी बीवी से रोज़-रोज़ की झकझक! अब न्यूजपेपर पढ़े भी तो कैसे पढ़े ! ले-दे-के  पखाना ही वह शांत और एकांत स्थल बचता है जहाँ वह न्यूज पेपर पढ़ने के लिए समय निकाल सकता है। ख़ैर, झींगुर जमनाबाई के प्रश्नों का जवाब देना मुनासिब नहीं समझता और वो भी पूरी तन्मयता के साथ टीवी स्क्रीन पर अपने थके- हारे चक्षु गाड़ देता है... 

टीवी स्क्रीन पर बीते हुए धारावाहिक के पिछले एपिसोड की कहानी हैस टैग के साथ तैरने लगती
है...! और एक कड़क आवाज़ पूरे जमनाबाई निवास के सदस्यों के होश उड़ाने लगती... ! 
कुछ इस प्रकार ... !
पिछले एपिसोड में आपने देखा कि कैसे पार्वती पड़ाईन अपनी बहू डिम्पल के द्वारा निर्मित ख़ीर में नमक़ और लालमिर्च मिलाकर अपने बेटे छक्कन को परोसती है और छक्कन ख़ीर खाते ही ख़ीर का प्याला डिम्पल के मुँह पर दे मारता है परन्तु ख़ीर का प्याला डिम्पल को न लगकर उसके ससुर रामसरन पांडेय को जा लगता है और घर में एक कोहराम का माहौल छा जाता है... ! 
और अब आगे ... !  इतना कहते हुए टीवी स्क्रीन के पीछे से कड़कती आवाज़ ढोलक की एक थाप के साथ बंद हो जाती है और धारावाहिक का टाइटल गीत बजने लगता है। 

                                          कुछ क्षण के लिए पूरा जमनाबाई निवास इस ग़म में डूब जाता है कि छक्कन द्वारा उछाला गया ख़ीर का कटोरा डिम्पल के ससुर जी यानी रामसरन के सिर पर जाकर फूट जाता है। 
माँ जी ! बड़ी कमीनी सास है ! क्यूँ ! फुलझड़ी अपनी सास जमनाबाई की तरफ़ देखते हुए अपने क्रांतिकारी विचार व्यक्त करती है। अपने समुदाय की किरकिरी होता देख जमनाबाई भी अपनी कमर कसते हुए ," हाँ... ! हाँ... ! डिम्पल की ग़लती नहीं दिखती तुमको ! 
अरे ! पिछले एपिसोड में ऊ नासपीटी डिम्पल अपने सास की साड़ी पर गरमागरम चाय गिरा दीस रही ! तब तुमका नाही दिखा ! बड़ी आई डिम्पल की हितैषी ! कहते हुए जमनाबाई नाक-भौं सिकोड़ते हुए। 

                                       अब सास बहू के खेल में जीते कौन ! ई तो स्वयं हिमालय वाले ऊ सिद्ध बाबा भी नहीं बता सकते, भले ही उन्होंने तपस्या में अपने जीवन के सतकों वर्ष लगाए हों ! अब मुद्दा यह है कि "इन दोनों मोरनियों के मीठे चोंच ; अरब का कौन-सा ख़लीफ़ा बंद करने का ज़ोख़िम उठाये !" और बात, यहीं पर रुकती नहीं।
और हाँ ! ई बता ! तू कौन-सी  मेरी बड़ी सेवा कर देती है ! घर का सारा काम, झाड़ू-पौंछा सुबह से लेकर शाम तक मैं ही तो करती हूँ। तू कौन-सा बैठे-बैठे पहाड़ तोड़ती है। अरे झाँकना है तो अपने अंदर झाँक ! मुझसे ज़्यादा ज़ुबान मत चला ! दीवाली के मुर्ग़ा छाप पटाख़ों की तरह जमनाबाई अपनी बहुरिया फुलझड़ी पर फूटती हुई।

                                     ये आईं है; मिस एलिजाबेथ ! अरे का हम घर का कउनो काम ही नहीं करते ! घर का मॉर्डन इतिहास उठाके देख लो; अउरो  पढ़ लो ! किसी से कम काम करें तो हमरी चुटिया काटके भगवती माई पर चढ़ा देना ! आईं बड़ी काम करने .......

                                 उधर, दोनों सास-बहू को दुश्मनों की तरह लड़ता देख; हथियार डाल; पुरुषोत्तम महतो टीवी के रिमोट की ओर लपके। ख़बरदार वक़ीलसाहब जो आपने टीवी बंद किया ; इहें महाभारत हो जायेगा ! जमनाबाई वक़ीलसाहब को धमकाती हुई उन्हें टीवी बंद करने से रोकती है। दूसरी तरफ़ झींगुर इनकी लड़ाई से तंग आकर दूसरे कमरे में चला जाता है। तभी एकाएक; टीवी स्क्रीन पर बजने वाला डीम....डाम.....! बैकग्राउंड की ध्वनि तीव्र होने लगती है और पार्वती पड़ाईन चिकने-फिसलनदार फ़र्श पर आधे मुँह फिसलकर गिर जाती है; और टीवी स्क्रीन पर कुछ शब्दों "टू बी कॉनटिन्यू.......!" लिखने के साथ कड़कती ध्वनि सुनाई देने लगती है। आख़िरकार शीर्षक गीत-संगीत के साथ आज का लंकालगाऊ एपिसोड ख़त्म होता है। और जमनाबाई निवास के सभी सदस्य खाने के लिए रसोईंघर की तरफ़ प्रस्थान करते हैं।

                                अरे फुलझड़िया ! तनिक सब्ज़ी का कटोरा तो पास करना ! हुक़ुम चलाती हुई जमनाबाई। "जी, माँ जी ! अभी देती हूँ।" आज्ञा का समुचित पालन करती हुई फुलझड़िया। अरे ! दाल तो तूने बड़ा अच्छा बनाया है; और सब्ज़ी के तो क्या कहने ! फुलझड़िया की तारीफ़ के पुल बाँधती हुई जमनाबाई। फुलझड़िया जमनाबाई के मुँह अपनी बड़ाई सुनकर सातवें आसमान पर अभी चढ़ ही रही थी कि एकाएक जमनाबाई के श्रीमुख से एक करुणाभरी चीख़ निकल पड़ी !

                                 हाय रे ! हे भगवान ! ई जंगरचोर बहुरिया; आज तो हमका मारी डारिस रहल....  ! अरे ! तुमसे ठीक से काम नहीं होता तो बोल दिया कर; लेकिन ई प्राणघाती चावल बिना साफ़ किये मत बनाया कर ! आज तो मेरे, ई साठ बरस के दाँत भगवान को प्यारे होते-होते बचे हैं। अगले जनम में कउनो पुण्य किए होंगे हमने ! अब आप कह लीजिये, "सास शेर तो बहुरिया सवा शेर",
फुलझड़िया - अरे माँ जी ! चावल तो हमने ठीक से साफ़ किये रहे।
जमनाबाई - नाही तो का हम झूठ-मूठ का हल्ला मचा रहे हैं।
फुलझड़िया - हमरा ई मतबल नाही है। हम तो बस कह रहे हैं कि... !
जमनाबाई - बस-बस ! ज़्यादा जुबान न चला।
इस सास-बहु के हाई टेंशन ड्रामा से ऊबकर पुरुषोत्तम महतो अपनी खाने की थाली वहीं पटककर उठ खड़े हुए। और जल्दी-जल्दी हाथ धोकर अपने कमरे की ओर प्रस्थान करने लगे। तभी,
जमनाबाई - हाय रे ! हाय ! इहाँ हमरा दुख सुनने वाला कोई नहीं है। ई बुढ़वा पैंसठ बरस का हो गया लेकिन आज तक हमरा दुख समझने की कोशिश नहीं किया। कहते हुए नौ सौ आँसू, वहीं गिराने लगी।

शेष अगले अंक में                                                    
                       












5 टिप्‍पणियां:

रेणु ने कहा…

प्रिय ध्रुव -- सबसे पहले आप की इस नयी शुरुआत पर मेरी हार्दिक शुभकामनायें | धारावाहिक के रूप में इस उपन्यास का ब्लॉग पर आना बहुत रोचक रहेगा | मध्यवर्गीय परिवारों की आम दिनचर्या से शुरू हुए इस उपन्यास में आम भारतीय परिवार का सुंदर प्रस्तुतिकरण रहेगा ऐसा पहले अंक से जाहिर है | सास बहु का टी- वी प्रेम और कहाँ सुलभ ? और पल में तोला पल में माशा इस रिश्ते को वेदव्यास भी लिख पाने में असमर्थ हो जाएँ !!!!!आंचलिकता के मधुर रस में सराबोर उपन्यास की अगली किश्त का इन्तजार रहेगा | मेरी हार्दिक शुभकामनायें और स्नेह |

Meena Bhardwaj ने कहा…

आपके उपन्यास के पहली कड़ी बेहद रोचक लगी..बहुत दिनों बाद आपका लिखा पढ़ने को मिला । लिखते रहिए.. हार्दिक शुभकामनाएं ।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी। चलिये इन्तजार खत्म किया आपने :)

अनीता सैनी ने कहा…

बनारसी संस्कृति को स्थानीय भाषा में सरलता से बखान किया गया है,अच्छा रोचक उपन्यास है इसे आगे बढ़ाइए |
सादर

Gopal Tiwari ने कहा…

सहज और सरल अभिव्यक्ति इस उपन्यास को रोचक बनाती है।