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रविवार, 30 दिसंबर 2018

छद्दम वर्ष....



ये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...

बीत गईं, अब साँझ नई
लेकर आई है राग वही
बन नवल रात्रि में स्वप्न नये
कल नया सवेरा लाता हूँ।

ये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...

वर्षों बीते,सदियाँ बीतीं
गंदले इतिहास के पन्नों में
कुछ जीर्ण-शीर्ण, कुछ हरे-भरे
उन जख़्मों को सहलाता हूँ।

ये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...

प्रण धुँधला है और संशय भी
दृग-विहल अश्रु-सा कल-कल भी
तारीख़ें फिर-फिर आयेंगी
बनकर स्मृतियों-सा अनल समीर

मैं सूतपुत्र हूँ, कर्ण सही
कर्तव्य-अश्व  दौड़ाता हूँ।

नये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...

राजा ना हूँ मैं, प्रजा सही
कीचड़, मस्तक-तन सना सही
हल हाथों, न कोई खंज़र है
भूखी जनता हर घर-घर है
स्वप्न नये हैं , पौध यही
क्यारी-क्यारी बिखराता हूँ।

नये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...

अब दूर नहीं आशा अपनी
हर बोली है , भाषा अपनी
मैं भारत हूँ , न धर्म कोई
हों द्वेषविहीन, न मर्म कोई
हो नये वर्ष का धर्म यही
हाथों में तिरंगा ले-लेकर
बन नया वर्ष फहराता हूँ।

ये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ... 
नये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...      

'एकलव्य' 

  ( प्रकाशित :  अंक 53, जनवरी(द्वितीय), 2019 साहित्यसुधा  )





1 टिप्पणी:

Prakash Sah ने कहा…

बहुत बढ़िया। आपकी आवाज में सुनकर और बढ़िया लगा।