शनिवार, 23 दिसंबर 2017

"फिर वह तोड़ती पत्थर"


"फिर वह तोड़ती पत्थर"

वह तोड़ती पत्थर
आज फिर से खोजता हूँ
'इलाहाबाद' के पथ पर

दृष्टि परिवर्तित हुई
केवल देखने में
दर्द बयाँ करते
हाथों पर पड़े छाले
फटी साड़ी में लिपटी
अस्मिता छुपाती
छेनी -हथौड़ी लिए
वही हाथों में,
दम भर
प्रहार कर

वह तोड़ती पत्थर
आज फिर से खोजता हूँ
इलाहाबाद के पथ पर

परिवर्तित स्थान हुआ
इलाहाबाद से प्रस्थान हुआ
शेष नहीं वह पथ
जिस पर
तोडूं मैं पत्थर

अब तोड़ने लगी हूँ
जिस्मों को
उनकी फ़रमाईशों से
भरते नहीं थे पेट
उन पत्थरों की तोड़ाई से

अंतर शेष है केवल
कल तक तोड़ती थी
बेजान से उन पत्थरों को
अब तोड़ते हैं वे मुझे
निर्जीव सा
पत्थर समझकर

वह तोड़ती पत्थर
आज फिर से खोजता हूँ
इलाहाबाद के पथ पर

कोठे पर बैठी 
फ़ब्तियाँ सहती हुई 
समाज की कुरीतियों से 
जख़्मी मगर 
कुचली जाती 
लज्जा मेरी 
शामों -पहर 
गिरते नहीं हैं 
अश्रु मेरे 
यह सोचकर 

कल तक 
तोड़ती पत्थर 
उसी इलाहाबाद के पथ पर 
जहाँ 'महाप्राण' छोड़ आए 
मुझको सिसकता देखकर 

सत्य ही है आज 
मैं तोड़ती नहीं 
पत्थर 
उस दोपहरी में 
तपते सड़कों पर 
किन्तु जलती 
आज भी हूँ 
अपनी हालत 
देखकर 

हाँ ! मैं  
तोड़ती थी 
पत्थर 
जिसे तूँ खोजता है 
आज 
इलाहाबाद के 
पथ पर 

वह तोड़ती पत्थर
आज फिर से खोजता हूँ
इलाहाबाद के पथ पर 

( उन मंज़िलों के इंतज़ार ने ,कद मेरा छोटा किया )
प्रश्न है "महाप्राण" से  

 "एकलव्य"


शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

''अविराम लेखनी''


''अविराम लेखनी'' 


लिखता जा रे !
तूँ है लेखक 
रिकार्ड तोड़ रचनाओं की 
गलत वही है 
तूँ जो सही है 
घोंट गला !
आलोचनाओं की 
पुष्प प्रदत्त कर दे रे ! उनको 
दिन में जो कई बार लिखें 
लात मार दे ! कसकर 
उनको 
जीवन में एक बार 
लिखें 
लिख -लिख पगले 
भर -भर स्याही 
जब जी चाहे छाती पे 
लगा -लगा कर धूम मचा दे 
सौ टिप्पणियाँ 
'राही' की 
सोच न उनको, जो हैं लिखते 
सत्य काव्य सा अनुभव को 
वो हैं मूरख, सोचने वाले 
करते बातें मानव की 
लिखता जा अविराम लेखनी 
लिखने का तूँ आदी है 
कर दे तूँ सूर्यास्त साहित्य का 
तुझमें हिम्मत बाक़ी है !

आज लिख रहा तेरी महिमा 
अनपढ़ सा मैं सोचने वाला 
वाह रे ! फ़कीर जो तूने किया  
साहित्य समाज का सच्चा रखवाला 


( दिन में सौ रचनायें लिखने वाले सम्माननीय लेखकों को "एकलव्य" का दंडवत नमन। )


"एकलव्य"   

मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

'शोषित'

'शोषित' 


बापू ! बड़ी प्यास लगी है 
पेट में पहले आग लगी है 
थोड़ा पानी पी लूँ क्या !
क्षणभर जीवन जी लूँ क्या !

धैर्य रखो ! थोड़ा पीयूँगा 
संभल-संभल भर हाथ धरूँगा 
दे दो आज्ञा रे ! रे ! बापू 
सौ किरिया, एक बार जीयूँगा

ना ! ना ! 'बुधिया' कर नादानी 
पाप लगेगा पिया जो पानी 
'ब्रह्मज्ञान' ना तुझको 'मूरख' 
करता काहे जान की नौबत 

सुन 'बुधिया' ! कोई देख ले नाला 
ना मंदिर ना कोई 'शिवाला' 
देख नहर में शव जो पड़ा है 
नहीं कोई 'ज़ल्लाद' खड़ा है 

डाल दे अपने कलुषित मुख को 
पी ले नीर ,जो 'आत्मतृप्ति' हो

काहे ऊँची बात तूँ कहता 
धर्म-भेद के चक्कर पड़ता 

जन्म लिया है मेरे घर में 
जन्मजात अधिकार गंवाकर 

आधुनिकता का भाव न भाए 
सारभौम 'शोषित' कहलाये। .. 


( मानवता की प्रतीक्षा में )

"एकलव्य"