इस लोक में
जन्मा !
अज्ञानी
कूट छिपा
मैं
अभिमानी !
सुन्दर तल हैं
'कर' के मेरे
जिनसे करता हूँ
नादानी !
समय शेष है
अहम् का
मेरे
भ्रमित विचरता !
माया वन
में
भ्रम रूपी मुझे
हिरण दिखे है
स्वप्न दिवा की
बात कहे है
काक मुझे
कोयल
प्रतीत हो !
कर्कश वाणी
अमृत ! वर्षा के
मान स्वर
दिन-रात
पिये हो
सत्य प्रतीत हो
दुर्जन मेरा
काल ! बुलाऊँ
बना ! सवेरा
मोहिनी के
मंदिरा ! का
प्यासा
गढ़ूँ ! मिथ्या
सुन्दर
अभिलाषा !
ज्ञानी को मैं
मूर्ख
बताऊँ !
बता स्वयं
ज्ञानी
कहलाऊँ
मधुशाला ! अब
बना है
मंदिर
करूँ मैं
अपना
आत्म समर्पित !
आत्मोत्सर्ग की
पराकाष्ठा
ख़ूब ! बनाऊँ
उन्मुख होकर
घर बैठी
अर्धांगिनी रोये !
बुझा-बुझा के
मुझको सोये
रात्रि भए हो
किवाड़ बुलाऊँ !
अर्द्ध निद्रा उसे
जगाऊँ
जिह्वा खोले !
छला बताऊँ
स्वयं को मैं
रणवीर बनाऊँ
सांय-प्रातः ! मैं
रोज कमाऊँ
मधुशाला ! में
ख़ूब लुटाऊँ
पी-पीकर
मरणासन्न !
जाऊँ
यही मुक्ति ! मैं
मार्ग
बताऊँ
"एकलव्य"
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