शनिवार, 20 मई 2017

"मुक्ति मार्ग"

इस लोक में
जन्मा !
अज्ञानी
कूट छिपा
मैं
अभिमानी !
सुन्दर तल हैं
'कर' के मेरे
जिनसे करता हूँ
नादानी !
समय शेष है
अहम् का
मेरे
भ्रमित विचरता !
माया वन
में
भ्रम रूपी मुझे
हिरण दिखे है
स्वप्न दिवा की
बात कहे है
काक मुझे
कोयल
प्रतीत हो !
कर्कश वाणी
अमृत ! वर्षा के
मान स्वर
दिन-रात
पिये हो
सत्य प्रतीत हो
दुर्जन मेरा
काल ! बुलाऊँ
बना ! सवेरा
मोहिनी के
मंदिरा ! का
प्यासा
गढ़ूँ ! मिथ्या
सुन्दर
अभिलाषा !
ज्ञानी को मैं
मूर्ख
बताऊँ !
बता स्वयं
ज्ञानी
कहलाऊँ
मधुशाला ! अब
बना है
मंदिर
करूँ मैं
अपना
आत्म समर्पित !
आत्मोत्सर्ग की 
पराकाष्ठा 
ख़ूब ! बनाऊँ 
उन्मुख होकर 
घर बैठी 
अर्धांगिनी रोये !
बुझा-बुझा के 
मुझको सोये 
रात्रि भए हो 
किवाड़ बुलाऊँ !
अर्द्ध निद्रा उसे 
जगाऊँ 
जिह्वा खोले !
छला बताऊँ 
स्वयं को मैं 
रणवीर बनाऊँ 
सांय-प्रातः ! मैं 
रोज कमाऊँ 
मधुशाला ! में 
ख़ूब लुटाऊँ
पी-पीकर 
मरणासन्न ! 
जाऊँ 
यही मुक्ति ! मैं 
मार्ग 
बताऊँ 



"एकलव्य" 



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