गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

"चंद ख़्याल मेरे"

अब आ रहा है चैन 
क्यूँ जागूँ ? तूँ बता 
कल ही अभी सोया हूँ 
ख़लल डालूँ,तूँ बता !


         ⧪



बेच ही रहें हैं 

तो बेचने दे !
आख़िर कफ़न उनका है 
मैयत भी उनकी !


          ⧪



वो नाचतें हैं,सिर पे !

जाग जाऊँगा 
वो खाते हैं,ज़िस्म को !
ख़ौफ खाऊँगा 
मसलन इंसान ही हूँ !
ख़ाक में मिल ही जाऊँगा 


           ⧪



वो बनायेंगे !

भस्म से मेरे 
कई बर्तन !
थोप देंगे,
रंगों के अंजुमन 
मिट्टी ही हूँ 
जैसा चाहो !
ढल ही जाऊँगा 


           ⧪



डर लगता है !

पानी को छूने से 
कुछ तलक इंतज़ार कर ले !
आहिस्ता-आहिस्ता 
गल ही जाऊँगा !


           ⧪



आये कई शख़्स !

ख़्याल पेश करने वाले 
मैं भी आया हूँ, 
कुछ वक़्त ठहर जा !
दिल में उमड़ते अरमां 
कह ही जाऊँगा !


            ⧪



कहूँगा दो लफ़्ज !

शब्द नहीं रखता कोष में 
गहराईयाँ होंगी,ख़्यालों में 
पलभर में उतर ही जाऊँगा !


             ⧪



कुछ लोग लगायेंगे तोहमत 

मेरी क़लम की स्याही पे, 
सोच हूँ !
अपनी धुन का,
मौका मिला तो !
क़हर ढुङ्गा ,


            ⧪



याद आऊँगा !

बीते ज़माने को 
ज़र्रा ना बचेगा 
जमीं पर 
राख़ हूँ !
राख़ में मिल जाऊँगा .........  



''एकलव्य"










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