अब आ रहा है चैन
क्यूँ जागूँ ? तूँ बता
कल ही अभी सोया हूँ
ख़लल डालूँ,तूँ बता !
⧪
बेच ही रहें हैं
तो बेचने दे !
आख़िर कफ़न उनका है
मैयत भी उनकी !
⧪
वो नाचतें हैं,सिर पे !
जाग जाऊँगा
वो खाते हैं,ज़िस्म को !
ख़ौफ खाऊँगा
मसलन इंसान ही हूँ !
ख़ाक में मिल ही जाऊँगा
⧪
वो बनायेंगे !
भस्म से मेरे
कई बर्तन !
थोप देंगे,
रंगों के अंजुमन
मिट्टी ही हूँ
जैसा चाहो !
ढल ही जाऊँगा
⧪
डर लगता है !
पानी को छूने से
कुछ तलक इंतज़ार कर ले !
आहिस्ता-आहिस्ता
गल ही जाऊँगा !
⧪
आये कई शख़्स !
ख़्याल पेश करने वाले
मैं भी आया हूँ,
कुछ वक़्त ठहर जा !
दिल में उमड़ते अरमां
कह ही जाऊँगा !
⧪
कहूँगा दो लफ़्ज !
शब्द नहीं रखता कोष में
गहराईयाँ होंगी,ख़्यालों में
पलभर में उतर ही जाऊँगा !
⧪
कुछ लोग लगायेंगे तोहमत
मेरी क़लम की स्याही पे,
सोच हूँ !
अपनी धुन का,
मौका मिला तो !
क़हर ढुङ्गा ,
⧪
याद आऊँगा !
बीते ज़माने को
ज़र्रा ना बचेगा
जमीं पर
राख़ हूँ !
राख़ में मिल जाऊँगा .........
''एकलव्य"
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