रविवार, 23 अप्रैल 2017

''कीर्ति स्तम्भ''

हिमालय के मैं गोद में
था सुषुप्त सा,रौद्र में
हिम पिघलती जा रही
पीड़ा बन,आवेग में


कोई पूछे ! क्यूँ पड़ा है ?

मृत हुआ सा,सोच में
देख ! किरणें फूटतीं हैं
घाटियों के मध्य में


उठ ! खड़ा,तनकर यहाँ

उपदेश सा तूँ, रूप में
कर प्रस्फुटित ! विचार तूँ
निर्जरा संसार में,


देख ! वो जो आ रहा

वायु सा,यूँ वेग से
विस्तार दे ! हथेलियों को
लांग जा ! अम्बर तले


मुड़ नहीं ! तूँ ,देख मत !

काली वो,परछाईयाँ
केवल निराशा लायेंगी
जलते से दीपक तले


बल ! जो तेरे पंख बैठा

झाड़ ले !उसको अभी
प्रत्यक्ष अब,तुझको दिखेगा
संसार भी,चरणों तले


शक्ति बन !जो तूँ उड़ेगा

मारुति के रूप में,
पुष्प की वृष्टि करेंगे
बन उपासक,देव भी


दीप्तिमान ब्रह्माण्ड होगा

तेरे 'कीर्ति स्तम्भ' से ....




"एकलव्य"




        

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें