मंगलवार, 30 जनवरी 2018

मैं हूँ अधर्मी !


 मैं हूँ अधर्मी !

 तैरती हैं झील में 
वे ख़्वाब जो धूमिल हुए। 
कुछ हुए थे रक्तरंजित 
सड़कों पर बिखरे पड़े। 

चाहता धारण करूँ 
शस्त्र जो हिंसा लिए 
याद आते हैं, वे बापू 
स्नेह जो मन में भरें। 

भूख भी तांडव मचाती 
रह-रहकर पापी उदर में 
हूँ विवश,करने को कर्म 
नैतिक प्रकृति से परे। 

कल काटता हांसिये सहारे 
उग गए जो खेत में 
कट गए अब स्वप्न सारे 
शेष से बस खूँट हैं। 

जन्मा नहीं था, मैं अनैतिक 
नैतिक ही था बस रक्त में 
'करवटें' परिस्थितियों की ऐसी 
खींच लाया 'नर्क' में।

पूजता था, मैं भी पत्थर
 इष्ट उनकों मानकर 
जल चढ़ाता ,तिल गिराता 
भावभीनी  स्नेह से। 

विमुख नहीं, मैं आज भी हूँ 
कट्टर पुजारी धर्म का। 
एक 'अनुत्तरित' प्रश्न भी है 
मुझको बता दो !
धर्म क्या ?

ज्ञान मेरा, हुआ विस्तारित 
धर्म क्या ?
अधर्म क्या ?
मैं तो जानूँ , धर्म मानव !
भेद तो तुमने किया। 

सोता हूँ, मैं 
धर्म है !
रोता हूँ, मैं
धर्म है !
खाता हूँ ,मैं 
धर्म है !
स्नेह मुझको तुमसे है 
यह धर्म है ! यह धर्म है !
कल गिरे थे, तुम सड़क पे 
तुमको उठाया। 
धर्म है !
भूख से वो मर रहा 
रोटी खिलाया। 
धर्म है !

विचलित हुआ इनसे कभी 
अधर्म है ! अधर्म है !

अब बता ! मुझको अभी 
तूं किस माटी का धर्म है ?
ना मैं हिन्दू !
ना मैं मुस्लिम !
मानवता ही धर्म है !
केवल यही एक 'मर्म' है।
फिर भी पूजे, पुतले बनाकर
माटी से है, जो बना 
पानी पी-पी धर्म बताए 
बन अशक्त-सा 
मैं खड़ा। 

समझ न पाया सदियों से 
शाश्वत स्वभाव ही 
धर्म है ..... !

( हाँ ! मैं हूँ अधर्मी। )

"एकलव्य"











रविवार, 14 जनवरी 2018

जीवित स्वप्न !

 जीवित स्वप्न !


चाँद के भी पार होंगे 
घर कई !
देखता हूँ रात में 
मंज़र कई 

चाँदी के दरवाज़े 
बुलायेंगे मुझे 
ओ मुसाफ़िर ! देख ले 
हलचल नई 

वायु के झोंकों से 
खुलेंगी खिड़कियाँ जो 
स्वर्ण की !
पूर्ण होंगी, स्वप्न की वो तारीख़ें 
अपूर्ण सी ! जीवन में 
बनकर रह गईं। 

चाँद के भी पार होंगे 
घर कई !

सूख सी रोटी गई है 
थाल में 
उम्मीद की गर्मियों से 
ताज़ी हो गईं। 

देखता हूँ रात में 
मंज़र कई 
चाँद के भी पार होंगे 
घर कई !


"एकलव्य"