हृदय में उठता बुलबुला
हताशाओं से, फट रहा
लिख दूँ क्रांति ! लेखनी से
मन ये मेरा कह रहा
लेकर मशालें हाथों में
सुबहों निकलता नित्य हूँ
जाग जा ! तूँ ऐ वतन
काल तुझसे कह रहा
लूटतें हैं ! भेड़िये
मिलकर,अस्मिता देश की
पा रहा तूँ,चैन क्यूँ ?
कराहती अंतरात्मा
सुन तनिक ! तूँ चल सही
एकांकी नहीं,इस धरा
धैर्य रख, वो आयेंगे !
देर ही सही,ज़रा
दरक़ार है, चिंगारी की
पत्थरों को घिस ! अभी
क्रांति की ज्वाला जलेंगी
करतलें फैला ! ज़रा
स्वीकारता हूँ,सत्य को
खड़ा अकेला,आज तूँ
न्याय की वेदी पे ख़ुद को
क्षणमात्र,चढ़ा ! ज़रा
फूँक दे ! विश्वास की
जो चेतना,सोई हुई
विश्व होगा साथ तेरे
युग चिरस्थाई,ला ! ज़रा
"एकलव्य"
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