गुरुवार, 30 जनवरी 2020

ई ससुर, मुद्दा क्या है?





ई ससुर, मुद्दा क्या है?


मुद्दा ये नहीं,
कि मुद्दा क्या है!
मुद्दों पर चलने वाला,
अपना ही कारवां है। 

बनते हैं मुद्दे,
कारवां में भी 
मुद्दे पर मुद्दा,
बनाते हुए। 

तफ़्तीश करना मुद्दों की 
मुद्दा बड़ा अहम् है 
इस कारगुज़ारी में,
मिल गये हैं बंदर 
इसी मुद्दे की 
चारों बाँह पकड़कर। 

ख़तरे में है मुद्दा 
एक सौ पैंतीस करोड़ 
मुद्दों के लिये,
ख़तरे में हैं जिनके मुद्दे 
अभी केवल कुछ वर्षों से। 

मुद्दों के भी 
कुछ और मुद्दे हैं 
और हैं मुद्दों को बचाने वाले 
बचे हुए मुद्दों पर,
लाठी चलाने वाले मुद्दे। 

आवाम के वे सारे मुद्दे 
कौन अपने हैं?
और कौन हैं पराये?
कुछ मुद्दे तय करते हैं 
जो एक सौ पैंतीस करोड़ के 
मुद्दों से, मुद्दों पर बैठे हैं!

साहब! ये मुद्दा क्या है?
तनिक बताईए हमें!
इन मुद्दों की तासीर क्या है?

भारत एक ख़ोज!
अथवा ख़ाली एक मौज़!

सोज़ का विषय है!
ई ससुर, मुद्दा क्या है?

अरे साहब! 
मुद्दों की 'क्रोनोलॉजी' समझिए!
             
  
रेडीमेड कवि संगोष्ठी! 

हज़रतगंज के कवि मंच पर 
ख़ूब लगी थी भीड़,
कुछ बैठे अति काने-कौवे 
बाक़ी पीर-फ़क़ीर। 
कलुआ भागा, दौड़ा-दौड़ा 
कक्का के संग आया,
अपनी बारी में डंटकर 
ऐसा कोहराम मचाया। 

पास वहीं मंचित बैठे 
पुरखे फ़ौरन घबराये,
कलुआ की तीखी वाणी सुन 
भर, पात-पात मुरझाये।

बोले कक्का, 
रहने दे कलुआ!
तू काहे ऊधम मचाये!
जानती है जनता अपनी
फिर काहे व्यंग्य गँवाये!

उधर देख अब संचालक भी 
तुझसे हैं खुन्नश खाये। 
क्षणभर में नीचे आ जा तू 
क्यों भद्द अपनी पिटवाये। 

सुनकर बातें  तब कक्का की 
कलुआ थोड़ा तुनकाया 
ठहरो कक्का,धोती पकड़ो!
 कुछ मिनटों में मैं आया। 

ऊधम मचाता कलुआ भी 
अब थोड़ा ज़ोश में आया 
तेरी-मेरी अब ख़ैर नहीं,
कहता-कहता पगलाया!

उधर संघ के सानी सब 
अब लुटिया डूबी जानें,
करते-करते कानाफूंसी 
बस अपना बिस्तर बाँधे!

कुछ उनमें भी थे पगे हुए,
अब कलुआ रास न आया 
क्षण में मंच बना था रण 
मन देख-देख घबराया!

एक ने फेंका जूता अपना 
कलुआ पर निश्चित लक्षित कर 
पर भाग्य बड़ा ही खोटा था 
जूता जो गिरा कक्का के सर!

चीख़े कक्का, निज प्राण गया 
जीते-जी कलुआ मार गया 
तुझको क्या चुल्ल मची इतनी 
फ़ोकट में जीने का सार गया!

चीख़ें सुन कलुआ,कक्का की 
क्षण, अपना आपा खो बैठा
प्रतिशोध में अपने कक्का के 
ध्वनि-डंडी से सब धो बैठा!

विक्रालरूप देख, कलुआ का 
रस वीर कवि महोदय बोले,
मैं वीर हूँ केवल शब्दों का 
धीरे-धीरे कहते डोले!

प्रेमरसिक कविवर बोले,
मन भाँप श्याम, मन को तोले 
प्रियवर तुम तो सानी हो 
तुम केवल हिंदुस्तानी हो!

मैं तो ठहरा, एक प्रेम-पथिक 
शत्रु ना हूँ मैं, प्रेम-अडिग 

डग भरता सूनी गलियों में,
न गाता हूँ न रोता हूँ 
पिछला बसंत है स्मरण मुझे 
कलियाँ बसंत की आयीं थीं 
अब सूखी टहनी शेष बचीं 
बस रहतीं हैं परछाईं-सी!

छोड़ो मुझको, पकड़ो उसको!
है व्यंग्य कवि, तोड़ो उसको! 

प्रभु क्षमा करो अब तो मुझको!
न किसी मंच पर जाऊँगा 
जूता क्या, चप्पल खेत रहे 
नित्-नंगे पैर ही आऊँगा!

व्यंग्यों के बाणों-संग बैठा 
कुछ तोंद फुला, ऐंठा-ऐंठा,
तरकश शब्दों के साथ लिये 
अर्जुन-सा वीर बना बैठा!

भान मिज़ाज़ कलुआ-कक्का 
तोते-सी शक्ल बना बैठा 
बस निकट जानकर कलुआ को 
हलक़ में प्राण बसा बैठा!

हक़लाकर बोला, भाई सुन!
हल्दी में अब चंदन के गुण 
मैं तो बैठा था अलग-थलग 
अब क्या पीसेगा, गेहूँ में घुन! 

मैं तो बेचारा, कविवर ही था 
मंचों पर मारा जोकर था 
उसने दिखलाये स्वप्न बड़े 
रख, ज्ञानपीठ का दम्भ भरे!

उसने बोला, तू अकेला है 
कुछ बोले, कवि झमेला है
बिन टोली ख़ाली, कुछ भी नहीं 
दुनिया भीड़ का मेला है!

एकांकी मंच पर कुछ भी नहीं 
लेख़क स्वतंत्र तू आयेगा 
कर शोर-सुपारिश अतिआवश्यक
वाणी आकाश की पायेगा!

मैं ख़ाली लालच में आया 
रुतबे का मद नज़र छाया 
बस वार्षिक शुल्क ज़मा कर दी 
टोली की चोली सिलवाया!

अब जाता हूँ कवि-मंचों पर 
साहित्यसमाज के ख़र्चों पर 
अब लंबी पूँछ, बड़ी अपनी 
साहित्यलेखनी कंधों पर!

बोला, उसने जो बुलवाया 
शुभ साँझ-सवेरे मंचों से 
ज्ञात मुझे साहित्य नहीं 
बस राजनीति है धंधों से!

कहता हूँ मुझको माफ़ करो 
सब किया-कराया साफ़ करो!
सरपट दौड़ा मैं जाऊँगा 
उस कुनबे में छिप जाऊँगा 
उस धागे वाली 'रिमझिम' को 
दिन में फिर चार घुमाऊँगा!

सुन विनती कवि की दौड़े कक्का 
जो मन से थे हक्का-बक्का 
बोले कलुआ, अब जाने दे!
चल छोड़ छड़ी, पछताने दे!

तू कवि है केवल, भान रहे 
लेख़क की सुचिता, मान रहे 
कवि के पथ का तू गौरव है 
साहित्य में बाक़ी जान रहे!

ख़ुद को ऊँचा कर, मंच नहीं 
बस रच साहित्य, प्रपंच नहीं 
मानस का तू राजहंस 
रख मानवता अवशेष नहीं!

सुन गीता का, वह सार-शब्द 
कलुआ लज्जित-सा बार-बार 
जोड़ा कर अपने कक्का के 
था पश्चाताप से तार-तार!

मिल गृह-प्रस्थान किये दोनों 
विकल्प-रहित, संकल्प-सहित 
साहित्य प्रेम से चलता है 
हो द्वेष-रहित, कर्तव्य-सहित!


'एकलव्य'             
                            
             

      

           

शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

बाट ( बाट जोहती ग्रामीण स्त्रियाँ )


   बाट 
( बाट जोहती ग्रामीण स्त्रियाँ )
"एक 'दर्पण' के टूटे हुए अनेक टुकड़े, जिनको मैं जितने भी शब्द दूँ, संभवतः पर्याप्त नहीं!"     


सपन सुन्दरी, पनघट गगरी 
मैं गोरिया अकुलाई। 
वो निर्लज्ज, परदेश बलमुआ
रात-खाट कुम्हलायी।  

चकिया भर-भर दाना पीसूँ 
डाले पिया खटाई। 
साँझ-सवेरे रोऊँ भर-भर,
अखियाँ नींद न आयी।  

सपन सुन्दरी, पनघट गगरी 
मैं गोरिया अकुलायी।  

ना चिट्ठी, कोई पाती आयी 
शोक पिया संदेशा लायी । 
घोरि-घोरि अब बीतन रतिया 
मोहे समझ न आयी । 

अंत समय निज आवन लागी 
टूटी खाट बिछायी । 
बंद हो रही अँखियन मोरी 
कैसी लगन लगायी । 

सपन सुन्दरी, पनघट गगरी 
मैं गोरिया अकुलायी ।



चितवन कैसी, रात चितेरे
मन जोगी संग लागा।
भींगा-भींगा हृदय भी प्यासा
दिन अति लागे माया।

  मुरगी पकड़ूँ कर से अपने
दौड़-दौड़कर द्वारे,
मेदिनी फिर-फिर झाड़ लगाऊँ
आ बैठूँ चौबारे।

साँझ भये घर दीपक धारूँ
निज फूँकू मुँह चूल्हा
खाँसत-खाँसत हारूँ मन से
चूल्हा बना है दूल्हा।

इस दूल्हे से प्रीत भई है
मेरी जतन बड़ाई,
स्नेह करूँ अति मन से कैसे
अंचिया धरूँ कढ़ाई।

कुलटा कैसी किसमत पायी
उनकी बनी लुगाई
दिन-प्रतिदिन हैं ऐसे बीते
जीवन बना खटाई ।

आज चढ़ रही, बसियन की सीढ़ियाँ
घर कैसे बिसराई
कोई नहीं है रोने वाला
प्रियतम करे विदाई।

↔ 
  
मुनुआ-चुनुआ 
तात-पति सब 
बैठे हैं चौबारे,
मैं कलमुई चूल्हा फूँकू 
उर-बिच बहत पनारे। 

श्वान, गऊ घर बरधा नाचे 
चीख़-चीख़  बौराये,
नाद-नाद मैं भूँसा बोरूँ 
सास भोर चिल्लाये। 

दाना डालूँ, पानी लाऊँ 
बकरी घास खिलाऊँ,
गुड़गुड़-गुड़गुड़ हुक़्क़ा बोले 
सुन-सुन आध लजाऊँ। 

बारि-बारि मैं तोपन लागूँ 
घूँघट के चौपाई,
मर्द जने, मुए ताकन लागे 
घूँघट तन पर जाई। 

देख-देख मोहे साजन जलते,
कहते ओ हरजाई !
काहे ओ, निर्लज्ज खड़ी थी
बिन तोपन परछाईं। 

भावावेश में, मैं भी कह दूँ 
तोहे लाज न आयी  
खुद सोये हो चादर ताने 
मेहर पीर पराई। 

जस मुँह खोलूँ, पीटन जाऊँ 
वही मुंगर से सवतिया 
मैं निर्लज्ज बल, गिरूँ ओसारे 
रोऊँ भर-भर रतियाँ। 

कोसूँ मुँहभर तात तनिक को 
काहे जिद भिजवाया 
बाँध खूँट के, ऐसा जनावर 
अपना पगहा छुड़ाया। 

↔       



मड़ई हमरे लूह चलत हैं 
बुढ़वा खाँसत हारी, 
देखन पीड़ा, दरद सजनवा 
चिन्ता हमहु मारी। 

खेल गदेलन, खेल-खेलके
क्षुधा-छोर नियराए, 
माई-माई, लिपट-लिपटकर 
गुड़ से रोटिया खाये। 

कलही का, मैं दूँगी इनको 
झोपड़ डिब्बा खाली, 
एक तरफ हैं साजन पसरे 
कछु कहते हैं नाही।

वैद बुलाऊँ कैसे घर में 
जेवर साहू खाया,
अब तो माटी धूरी उड़त है 
सूखा खेत गँवाया। 

लाज-शरम बस बाक़ी हमरी 
बस धन यही बचाया, 
ठकुरा हमको देख-देखकर 
गली-गली पगलाया। 

आधी राति को बुढ़वा दौड़ा 
कहता, समय है आया,
भोर भई, मैं खींचूँ शव को 
मरघट पास न आया। 

जंगल-जंगल तोरूँ लकड़ी 
मुरदा पिया जलाऊँ,
रोक-रोककर, बालक मन को 
उल्लू ख़ूब बनाऊँ। 

रात भई, अब अँधियारे में 
दीया नहीं जलाऊँ,
खाऊँ किरिया, सौ-सौ उनकी 
कुएँ ख़ूब नहाऊँ। 

ढाँढस बाँधू बचवन के मैं 
हरदी-नमक ऊबालुँ,
उबला-उबला भात,नमक-संग 
उनको ख़ूब खिलाऊँ। 

भोर भई, खेतन में जोतूँ 
खुद को बैल बनाए, 
बैलन घूरे, हमको देखें 
रगड़-रगड़ बौराए। 

सूर्य देवता दया न खाएं 
अगनी-कोप  बरसायें, 
बिन पानी मैं गिरी खेताड़ी 
मुँह में धूरि लगाये। 

↔    
                   
 कह दे बिंदिया, गाँव है तोरा 
संग परदेसी नाता जोरा 
भोर-बिसव अब मैना गाये 
कूकट जाग गये अब थोरा। 


कह दे बिंदिया, गाँव है तोरा 

शुरु हो रहा, दिन हो जैसे 
डाले चकिया दाना वैसे 
लरिका खेल रहे हैं चारों 
कहते-कहते लाल हैं तोरा। 

 कह दे बिंदिया, गाँव है तोरा 

बुढ़िया कहती, राशन ला रे!
घर में हैं परधान पधारे,
बाँध जनेऊ तोंद पे अपने 
कहते हैं भगवान दुआरे। 

लोटा ले रे! पानी ला रे!
कहते भगवन थोरा-थोरा,

  कह दे बिंदिया, गाँव है तोरा 

दौड़-भाग रे! पाती आई 
डकिया बाबू पास बुलाई, 
पढ़ दे पतिया बाबू मोरी 
धड़के जियरा, थोड़ा मोरा 

कह दे बिंदिया, गाँव है तोरा 

बाबू पढ़ रहे पाती मोरी 
कह परनाम जो इच्छा तोरी,
सूचित करत हैं मोरी बिंदिया 
घटना सही है तोरी किरिया। 

कहते-कहते बाबू अटके 
पाती फार, धरती पर पटके 
कहते बिंदिया, दुःखद ख़बर है 
तेरा नाही गुज़र-बसर है 
आगे पात न पढ़ पाऊँगा 
दुख के गीत न मैं गाऊँगा। 

इतना कहकर मौन भये 
डकिया बाबू बेचैन हुए। 

कह दो बाबू जो कहना है 
तोड़ूँ चूड़ी क्या जो पहना है!

मैं वीर सपूत की नारी 
सुख-दुःख ना अब हमपर भारी 
लड़ते हैं सीमा पर सजना 
आगि लगी काहे मोरे अँगना!
गोली खायें वे ढेंगलायें 
मारि-मारि मैं जाऊँ संगना!

मृत तो हुई उसी दिन मैं न
रिश्ता जोरा उनसे रैना 
चिता फूँक रही देर-सवेरे 
चिंतामुक्त हुई हूँ मैं न!

'एकलव्य' 
बाट = प्रतीक्षा 
   "साहित्य एक क्रांति है न कि मनोरंजन का केवल एक माध्यम"