बुधवार, 20 जून 2018

अप्रगतिवादी सोच का मानव !



लालसा उस बौर की 
अमिया की डाली पर 
पल्लवित-पुष्पित होती। 
नाहक था इंतजार 
छोटी-छोटी अमिया !
लू चलती
हवाओं के थपेड़े में 
नंग-धडंग, पेड़ की छाँव में 
बैठे हम। 
गमछे की पोटली से निकालता 'रमुआ'
नमक,मिर्च की पुड़िया,
छील रहा था 'काका'
अमिया को,
तालाब से निकले उस सीप के 
चाकू से,
दक्षतापूर्वक बड़े। 
प्रतीक्षा थी सभी को, 
अमिया के उस छिलके की 
अमृत-सा था स्वाद जिसका 
तुलना में,
प्रगतिवादी सोच के मॉडर्न पिज़्जा,बर्गर से। 
बेहतर था,खुली हवा में 
मुफत के उस अमिया का स्वाद,
दौड़ती-भागती जिंदगी के 
बंद वातानुकूलित कक्ष से। 
बिना कपड़ों के,
कीचड़ से भरे तालाब में 
लंच में, अमिया का स्वाद लेने के पश्चात् 
खेलना, ताल-तलैया 
अनुभूति होती थी 
स्वर्ग-सी !
तुलना में,केवड़े के पानी से भरे 
स्वीमिंग पूल में 
बेहतर था,
अप्रगतिवादी सोच का 
मानव मैं !
बेहतर था। .........    
                                                     
'एकलव्य'          
                                    छायाचित्र : साभार गूगल